Tuesday, July 24, 2007

महामहिम कमजोर हैं
बीबीसी पर हुए एक सर्वेक्षण मे प्रतिभा पाटिल को ५०% से ज्यादा लोगो ने कमजोर राष्ट्रपति माना है।

Saturday, July 21, 2007

रिक्शेवाले की ठुसकी

किससे आती होगी असली बदबू ? मोहल्ले के कूड़े के ढ़ेर पर खौराये हुए कुत्ते से जो हमेशा पिछली टांग उठाकर कान को खबर खबर खुजलाता है और फिर पन्नियों के ढ़ेर मे बंद कल परसो के चावल दाल पर मुह मारता है? सड़क का वह पागल जिसके बाल बढ़े होते हैं और जब से पागल हुआ है तब से नहाया नही हुआ है ? बाल उसके बडे बडे हो गए हैं , उनमे लटें बन गई हैं मैल की । नाली मे लोटता हुआ सूअर जो आपको वह से गुजरते तो देखता है लेकिन परवाह नही करता । खासकर आपकी। रेलवे स्टेशन की फ्लाई ओवर वाली सीढ़ी पर बैठा वह यात्री जो बार बार अपनी नाक मे ऊँगली डालता है और फिर उसे निकाल कर देखता है कि हाँ .... अबकी आई असली चीज़ पकड़ मे । क्या उससे आती है असली बदबू ? किससे आती होगी असली बदबू ? वह रिक्शेवाला , जो आपको पीछे बैठाने पर बार बार ठुसकी मारता रहता है , क्या उससे ? या फिर उस रिक्शेवाले की सवारी जो उसके ठुसकी मारने की गंध का वर्णन करके सबको बताता है ? शहरी कीचड मे फसा हुआ पैर या फिर गाय के गोबर मे बूड गई चप्पल से ? बहुत सारी बदबूएँ हैं.... एक तुम भी हो.... सबसे बड़ी बदबू। एक मैं भी हूँ। सबसे बड़ी बदबू।
फ़ालतू के लोग

फ़ालतू मे जीते लोग
फालतू मे चलते लोग
फ़ालतू मे दौड़ते लोग
फ़ालतू मे खाते लोग
फ़ालतू के हैं ये लोग
फ़ालतू मे ही सड़ते लोग
फ़ालतू मे मरते लोग
फ़ालतू मे कहते लोग
कि हम तो
संवेदना के काका हैं ।
असंवेदनात्मक रचनात्मकता के शिकार

उनके पास बडे बडे काम होते हैं। और उन कामो से भी बड़ी बड़ी सोच भी। सबसे पहले तो सोचने मे ही इतना वक़्त लग जाता है कि कामो की फुर्सत ही नही मिल पाती। आख़िर करते क्या रहे वो? जिंदगी भर सोचते ही तो रहे। लेकिन जब कामो की फुर्सत मिलती है तो उन्होने जो बड़ा बड़ा सोचा होता है , उसी के हिसाब से वो और बड़ा बड़ा लिखने लगते हैं। लिखना उनका काम है। लिखना उनकी भाषायी उल्टी है। जिसे किये बिना दिन मे दो तीन बार उन्हें अपच हो जाता है। और जब अपच हो जाता है तो उसे मिटाने के लिए बड़ी बड़ी किताबो की गोली बनाकर दिन मे नियम से तीन या चार बार लेने लगते हैं। क्या लिखा होगा उन किताबो मे ? संवेदनशील बचपन और उसमे असंवेदनशील लोगो का दखल? या फिर समाज को बदलने मे जुटा एक संवेदनशील युवा की कहानी ? या फिर किसी ने कुछ महसूस किया और उसका लिखा उन्हें अच्छा लगा। उसका महसूसना उन्हें होमियोपैथी की मीठी गोली लगता है। जिसे वो चार चार गोली दिन मे चार बार की तरह मुह मे डालकर चुम्भलाते रहते हैं। उनके पास वक़्त नही है। कितने सारे तो काम हैं करने को। मीठी गोली खाना , सोचना , संवेदनशीलता को महसूस करना , उसकी दाद देना और इसी तरह के बहुत सारे काम। पूरी की पूरी लाइन है कामो की। फुर्सत कहा है।
दरअसल संवेदनशील साहित्य पढ़ते पढ़ते उनकी सारी की सारी संवेदनशीलता कुंद पद गई है । या फिर पूरी तरह से ख़त्म हो गई है। उन्हें समाज तो नजर आता है लेकिन उसमे रहने वाले लोग नही। उन्हें चेर्निवेश्की बनना है या फिर ब्रेख्त ।कुल मिलाकर उन्हें महान बनना है और ये बात उनकी नज़र के सामने आकर उन्हें पेट तक आनंदित कर जाती है कि वो महान बनने की राह पर हैं। उन्हें अपने महान बनना तो महसूस होता है लेकिन इसकी पट्टी इतनी मोटी हो गई है कि और कुछ न तो दिखाई देता है और न ही वे देखना चाहते हैं। जिंदगी मे ऐसे लोगो को गाली देने का भी कोई फायदा नही। क्योंकि एक मुलम्मा उनकी आँखों पर छा गया है। आनंद दे रहा है। सुख दे रहा है। सुख की ही तो तलाश थी उन्हें। मिल रहा है। ये सृजनशील रचनात्मक असंवेदना के शिकार हैं। कोई इनकी मदद करे। वैसे बाते तो बहुत हैं लेकिन अभी लिहाज कर रहा हू जो कि नही करना चाहिऐ था। कतई नही करना चाहिऐ था। ऐसे लोग लिहाज के अधिकारी नही होते।

Monday, July 16, 2007

एक विज्ञापन
हमारी एक सलाह आपके जीवन की दिशा दशा दोनो बदल सकती है
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मनचाहा ब्लोगीकरण स्पेस्लिस्ट

स्पेस्लिस्ट :- ब्लोग मे रुकावट , बंदिश , ब्लोग्गिंग करने वालों मे झगडे , गालियाँ , लिंकित तलाक़ , विरोधी टिप्पणियों से छुटकारा , अग्रीगेटर मुक्ति , ब्लोग हीनता , लिखास की कमी , लेखों की अधिकता , ब्लोगर्स मीट , ब्लोग मैरिज , ब्लोगाशान्ती , और अग्रीगेटर की परेशानियों जैसी जटिल से जटिल समस्याओं का समाधान।

सभी इल्मो की काट हमारे पास है।
ब्लोग मे चोट खाए लोग एक बार मिलें।
एक अगरबत्ती के साथ एक लैपटोप और इण्टरनेट का कनेक्शन साथ लायें।
रूहानी सात इल्मो के बेताज बादशाह
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बाबा ब्लागरी
फोन- 9978668754

गली न-१, पहली मंजिल , बस स्टैंड के सामने , टेढ़ी गली के पास , ट्रांस्फरामर के बगल
फोन- ९९७८६६८७५४
चिट्ठाजगत पर सम्बन्धित: मेरे सम्बन्धित चिट्ठे">मेरे, विज्ञापन सम्बन्धित चिट्ठे">विज्ञापन,

Tuesday, July 03, 2007

धुरविरोधी.... कही हो तो क्षमा करना

मैंने कभी भी सपने मे भी नही सोचा था कि ऐसा होगा। मैंने संजय की मानसिकता के साथ ही साथ मोदी को भी गालियाँ दी। मेरा ब्लोग नारद से निकाल दिया गया। मुझे कोई अफ़सोस नही। कतई अफ़सोस नही। आगे आने वाले समय मे मैं और भी गालियाँ दूंगा और वो भी तब तक जब तक कि ऐसे लोग एक सही लाईन पर नही आ जाते। ये साले लातो के भूत हैं। फालतू की बहस करने से ये सही नही होंगे। इनको सही करने का प्राथमिक उपाय गालियाँ ही हैं और तब भी न हो तो छह इंच छोटा करना पड़ेगा। सही लाईन का मतलब सिर्फ दूसरे धर्म की इज़्ज़त करना नही है बल्कि धर्म को एक सिरे से नकारना है। धर्म तो अफीम है जो सबको नशे मे रख कर उल्टे काम करवाता है। लेकिन फिर भी , कही न कही मुझे लग रह है कि मैं दोषी हू। मैं दोषी हू धुरविरोधी का। जिसके चिठ्ठे के लिए मैं काल बना। अब वही काल मुझे बार बार परेशान कर रह है कि मैंने.... मैंने एक चिठ्ठे की जान ले ली। मैं अपना कुछ भी लिख नही पा रहा हू। ना ही लिखने का मन हो रहा है। दिमाग मे बस एक ही बात घूमती रहती है...मैंने जान ली....मैंने ख़त्म कर दिया... इतना बड़ा पाप !! मैंने किसी की अभिव्यक्ति को बंद कर दिया... आह !! मैं सह नही पा रहा हू। बार बार मैं धुरविरोधी के ब्लाग पर जाता हूँ , इस आशा मे की शायद...शायद उन्होने अपनी पोस्टें फिर से अपने ब्लाग पर चढा दी हों...लेकिन ऐसा नही होता।

मैं बुरी तरह से अपराध बोध से ग्रस्त हूँ। गालियाँ देने के कारण नही बल्कि सिर्फ और सिर्फ इसलिये की धुरविरोधी अब हमारे बीच नही है। क्या करु , समझ मे नही आता। "नैपकिन विवाद " के बाद शायद ये मेरी पहली पोस्ट होगी और शायद आख़िरी भी...पता नही। उम्मीद तो खुद मैं भी लगा रहा हू की आख़िरी न हो। लेकिन चूतियों की जहर बुझी छिः करने की आदत ने ऎसी आग लगाई कि उसका बुझ पाना बहुत मुश्किल है। इस आग की प्रतिआग धुरविरोधी ने लगाई और उसको बुझाना बहुत ही कष्टदायक है। दर्द होता है... । जब भी कुछ लिखने बैठता हूँ , सिर्फ एक नाम दिमाग मे कौंधता है और सारी लिखाई घुस जाती है । कहा हो तुम धुरविरोधी ? मैं अधूरा हू तुम्हारे बिना। और न सिर्फ मैं बल्कि वो सब जो सहमति-असहमति का जनवाद हाथ मे थामे लड़ रहे हैं। तुम्हारी बहुत जरूरत है। सच !! तुमने अपना ब्लाग ही ख़त्म नही किया है....तुमने मुझे भी ख़त्म कर दिया है।
लेकिन हाँ । गंदे नैपकिन जैसी सोच वाले यह कतई न समझे कि उन्हें अब इस बात से गालियाँ पड़नी बंद हो जाएँगी। गालियों से भी न माने तो लात पडेगी और अगर लात से भी न माने तो सर के ऊपर से छह इंच के बाद की जगह नाप लीजिये । परमोद भैया सही कहे थे....
आओ आओ घात लगाएं
घेर घेर के लात लगाएं

किसने कहा हम चिरकुट हैं
कहवैये की तो बाट लगाएं......

Sunday, July 01, 2007

नए पडोसियों से मेल जोल
मुंशी प्रेमचंद

मुंशी संजीवनलाल, जिन्होंने सुवाम का घर भाड़े पर लिया था, बड़े विचारशील मनुष्य थे। पहले एक प्रतिष्ठित पद पर नियुक्त थे, किन्तु अपनी स्वतंत्र इच्छा के कारण अफसरों को प्रसन्न न रख सके। यहां तक कि उनकी रुष्टता से विवश होकर इस्तीफा दे दिया। नौकर के समय में कुछ पूंजी एकत्र कर ली थी, इसलिए नौकरी छोड़ते ही वे ठेकेदारी की ओर प्रवृत्त हुए और उन्होंने परिश्रम द्वारा अल्पकाल में ही अच्छी सम्पत्ति बना ली। इस समय उनकी आय चार-पांच सौ मासिक से कम न थी। उन्होंने कुछ ऐसी अनुभवशालिनी बुद्वि पायी थी कि जिस कार्य में हाथ डालते, उसमें लाभ छोड़ हानि न होती थी।

मुंशी संजीवनलाल का कुटुम्ब बड़ा न था। सन्तानें तो ईश्वर ने कई दीं, पर इस समय माता-पिता के नयनों की पुतली केवल एक पुञी ही थी। उसका नाम वृजरानी था। वही दम्पति का जीवनाश्राम थी।

प्रतापचन्द्र और वृजरानी में पहले ही दिन से मैत्री आरंभ हा गयी। आधे घंटे में दोनों चिड़ियों की भांति चहकने लगे। विरजन ने अपनी गुड़िया, खिलौने और बाजे दिखाये, प्रतापचन्द्र ने अपनी किताबें, लेखनी और चित्र दिखाये। विरजन की माता सुशीला ने प्रतापचन्द्र को गोद में ले लिया और प्यार किया। उस दिन से वह नित्य संध्या को आता और दोनों साथ-साथ खेलते। ऐसा प्रतीत होता था कि दोनों भाई-बहिन है। सुशीला दोनों बालकों को गोद में बैठाती और प्यार करती। घंटों टकटकी लगाये दोनों बच्चों को देखा करती, विरजन भी कभी-कभी प्रताप के घर जाती। विपत्ति की मारी सुवामा उसे देखकर अपना दु:ख भूल जाती, छाती से लगा लेती और उसकी भोली-भाली बातें सुनकर अपना मन बहलाती।

एक दिन मुंशी संजीवनलाल बाहर से आये तो क्या देखते हैं कि प्रताप और विरजन दोनों दफ्तर में कुर्सियों पर बैठे हैं। प्रताप कोई पुस्तक पढ़ रहा है और विरजन ध्यान लगाये सुन रही है। दोनों ने ज्यों ही मुंशीजी को देखा उठ खड़े हुए। विरजन तो दौड़कर पिता की गोद में जा बैठी और प्रताप सिर नीचा करके एक ओर खड़ा हो गया। कैसा गुणवान बालक था। आयु अभी आठ वर्ष से अधिक न थी, परन्तु लक्षण से भावी प्रतिभा झलक रही थी। दिव्य मुखमण्डल, पतले-पतले लाल-लाल अधर, तीव्र चितवन, काले-काले भ्रमर के समान बाल उस पर स्वच्छ कपड़े मुंशी जी ने कहा- यहां आओ, प्रताप।

प्रताप धीरे-धीरे कुछ हिचकिचाता-सकुचाता समीप आया। मुंशी जी ने पितृवत् प्रेम से उसे गोद में बैठा लिया और पूछा- तुम अभी कौन-सी किताब पढ़ रहे थे।

प्रताप बोलने ही को था कि विरजन बोल उठी- बाबा। अच्छी-अच्छी कहानियां थीं। क्यों बाबा। क्या पहले चिड़ियां भी हमारी भांति बोला करती थीं।

मुंशी जी मुस्कराकर बोले-हां। वे खूब बोलती थीं।

अभी उनके मुंह से पूरी बात भी न निकलने पायी थी कि प्रताप जिसका संकोच अब गायब हो चला था, बोला- नहीं विरजन तुम्हें भुलाते हैं ये कहानिया बनायी हुई हैं।

मुंशी जी इस निर्भीकतापूर्ण खण्डन पर खूब हंसे।

अब तो प्रताप तोते की भांति चहकने लगा-स्कूल इतना बड़ा है कि नगर भर के लोग उसमें बैठ जायें। दीवारें इतनी ऊंची हैं, जैसे ताड़। बलदेव प्रसाद ने जो गेंद में हिट लगायी, तो वह आकाश में चला गया। बड़े मास्टर साहब की मेज पर हरी-हरी बनात बिछी हुई है। उस पर फूलों से भरे गिलास रखे हैं। गंगाजी का पानी नीला है। ऐसे जोर से बहता है कि बीच में पहाड़ भी हो तो बह जाये। वहां एक साधु बाबा है। रेल दौड़ती है सन-सन। उसका इंजिन बोलता है झक-झक। इंजिन में भाप होती है, उसी के जोर से गाड़ी चलती है। गाड़ी के साथ पेड़ भी दौड़ते दिखायी देते हैं।

इस भांति कितनी ही बातें प्रताप ने अपनी भोली-भाली बोली में कहीं विरजन चित्र की भांति चुपचाप बैठी सुन रही थी। रेल पर वह भी दो-तीन बार सवार हुई थी। परन्तु उसे आज तक यह ज्ञात न था कि उसे किसने बनाया और वह क्यों कर चलती है। दो बार उसने गुरुजी से यह प्रश्न किया भी था परन्तु उन्होंने यही कह कर टाल दिया कि बच्चा, ईश्वर की महिमा कोई बड़ा भारी और बलवान घोड़ा है, जो इतनी गाडियों को सन-सन खींचे।

लिए जाता है। जब प्रताप चुप हुआ तो विरजन ने पिता के गले हाथ डालकर कहा-बाबा। हम भी प्रताप की किताब पढ़ेंगे।

मुंशी-बेटी, तुम तो संस्कृत पढ़ती हो, यह तो भाषा है।

विरजन-तो मैं भी भाषा ही पढूंगी। इसमें कैसी अच्छी-अच्छी कहानियां हैं। मेरी किताब में तो भी कहानी नहीं। क्यों बाबा, पढ़ना किसे कहते है ?

मुंशी जी बंगले झांकने लगे। उन्होंने आज तक आप ही कभी ध्यान नही दिया था कि पढ़ना क्या वस्तु है। अभी वे माथ ही खुजला रहे थे कि प्रताप बोल उठा- मुझे पढ़ते देखा, उसी को पढ़ना कहते हैं।

विरजन- क्या मैं नहीं पढ़ती? मेरे पढ़ने को पढ़ना नहीं कहतें?

विरजन सिद्वान्त कौमुदी पढ़ रही थी, प्रताप ने कहा-तुम तोते की भांति रटती हो।



चिट्ठाजगत पर सम्बन्धित: बजार, प्रेमचंद, मुंशी, पडोसी, प्रेम,

शिष्ट-जीवन के दृश्य

मुंशी प्रेमचंद

दिन जाते देर नहीं लगती। दो वर्ष व्यतीत हो गये। पण्डित मोटेराम नित्य प्रात: काल आत और सिद्वान्त-कोमुदी पढ़ाते, परन्त अब उनका आना केवल नियम पालने के हेतु ही था, क्योकि इस पुस्तक के पढ़न में अब विरजन का जी न लगता था। एक दिन मुंशी जी इंजीनियर के दफतर से आये। कमरे में बैठे थे। नौकर जूत का फीता खोल रहा था कि रधिया महर मुस्कराती हुई घर में से निकली और उनके हाथ में मुह छाप लगा हुआ लिफाफा रख, मुंह फेर हंसने लगी। सिरना पर लिखा हुआ था-श्रीमान बाबा साह की सेवा में प्राप्त हो।

मुंशी-अरे, तू किसका लिफाफा ले आयी ? यह मेर नहीं है।

महरी- सरकार ही का तो है, खोले तो आप।

मुंशी-किसने हुई बोली- आप खालेंगे तो पता चल जायेगा।

मुंशी जी ने विस्मित होकर लिफाफा खोला। उसमें से जो पञ-निकला उसमें यह लिखा हुआ था-

बाबा को विरजन क प्रमाण और पालागन पहुंचे। यहां आपकी कृपा से कुशल-मंगल है आपका कुशल श्री विश्वनाथजी से सदा मनाया करती हूं। मैंने प्रताप से भाषा सीख ली। वे स्कूल से आकर संध्या को मुझे नित्य पढ़ाते हैं। अब आप हमारे लिए अच्छी-अच्छी पुस्तकें लाइए, क्योंकि पढ़ना ही जी का सुख है और विद्या अमूल्य वस्तु है। वेद-पुराण में इसका महात्मय लिखा है। मनुषय को चाहिए कि विद्या-धन तन-मन से एकञ करे। विद्या से सब दुख हो जाते हैं। मैंने कल बैताल-पचीस की कहानी चाची को सुनायी थी। उन्होंने मुझे एक सुन्दर गुड़िया पुरस्कार में दी है। बहुत अच्छी है। मैं उसका विवाह करुंगी, तब आपसे रुपये लूंगी। मैं अब पण्डितजी से न पढूंगी। मां नहीं जानती कि मैं भाषा पढ़ती हूं।

आपकी प्यारी

विरजन

प्रशस्ति देखते ही मुंशी जी के अन्त: करण में गुदगुद होने लगी।फिर तो उन्होंने एक ही सांस में भारी चिट्रठी पढ़ डाली। मारे आनन्द के हंसते हुए नंगे-पांव भीतर दौड़े। प्रताप को गोद में उठा लिया और फिर दोनों बच्चों का हाथ पकड़े हुए सुशीला के पास गये। उसे चिट्रठी दिखाकर कहा-बूझो किसी चिट्ठी है?

सुशीला-लाओ, हाथ में दो, देखूं।

मुंशी जी-नहीं, वहीं से बैठी-बैठी बताओ जल्दी।

सुशीला-बूझ् जाऊं तो क्या दोगे?

मुंशी जी-पचास रुपये, दूध के धोये हुए।

सुशीला- पहिले रुपये निकालकर रख दो, नहीं तो मुकर जाओगे।

मुंशी जी- मुकरने वाले को कुछ कहता हूं, अभी रुपये लो। ऐसा कोई टुटपुँजिया समझ लिया है ?

यह कहकर दस रुपये का एक नोट जेसे निकालकर दिखाया।

सुशीला- कितने का नोट है?

मुंशीजी- पचास रुपये का, हाथ से लेकर देख लो।

सुशीला- ले लूंगी, कहे देती हूं।

मुंशीजी- हां-हां, ले लेना, पहले बता तो सही।

सुशीला- लल्लू का है लाइये नोट, अब मैं न मानूंगी। यह कहकर उठी और मुंशीजी का हाथ थाम लिया।

मुंशीजी- ऐसा क्या डकैती है? नोट छीने लेती हो।

सुशीला- वचन नहीं दिया था? अभी से विचलने लगे।

मुंशीजी- तुमने बूझा भी, सर्वथा भ्रम में पड़ गयीं।

सुशीला- चलो-चलो, बहाना करते हो, नोट हड़पन की इच्छा है। क्यों लल्लू, तुम्हारी ही चिट्ठी है न?

प्रताप नीची दृष्टि से मुंशीजी की ओर देखकर धीरे-से बोला-मैंने कहां लिखी?

मुंशीजी- लजाओ, लजाओ।

सुशीला- वह झूठ बोलता है। उसी की चिट्ठी है, तुम लोग गँठकर आये हो।

प्रताप-मेरी चिट्ठी नहीं है, सच। विरजन ने लिखी है।

सुशीला चकित होकर बोली- विजरन की? फिर उसने दौड़कर पति के हाथ से चिट्ठी छीन ली और भौंचक्की होकर उसे देखने लगी, परन्तु अब भी विश्वास आया।विरजन से पूछा- क्यें बेटी, यह तुम्हारी लिखी है?

विरजन ने सिर झुकाकर कहा-हां।

यह सुनते ही माता ने उसे कष्ठ से लगा लिया।

अब आज से विरजन की यह दशा हो गयी कि जब देखिए लेखनी लिए हुए पन्ने काले कर रही है। घर के धन्धों से तो उस पहले ही कुछ प्रयोज न था, लिखने का आना सोने में सोहागा हो गया। माता उसकी तल्लीनता देख-देखकर प्रमुदित होती पिता हर्ष से फूला न समाता, नित्य नवीन पुस्तकें लाता कि विरजन सयानी होगी, तो पढ़ेगी। यदि कभी वह अपने पांव धो लेती, या भोजन करके अपने ही हाथ धोने लगती तो माता महरियों पर बहुत कुद्र होती-आंखें फूट गयी है। चर्बी छा गई है। वह अपने हाथ से पानी उंड़ेल रही है और तुम खड़ी मुंह ताकती हो।

इसी प्रकार काल बीतता चला गया, विरजन का बारहवां वर्ष पूर्ण हुआ, परन्तु अभी तक उसे चावल उबालना तक न आता था। चूल्हे के सामने बैठन का कभी अवसर ही न आया। सुवामा ने एक दिन उसकी माता ने कहा- बहिन विरजन सयानी हुई, क्या कुछ गुन-ढंग सिखाओगी।

सुशीला-क्या कहूं, जी तो चाहता है कि लग्गा लगाऊं परन्तु कुछ सोचकर रुक जाती हूं।

सुवामा-क्या सोचकर रुक जाती हो ?

सुशीला-कुछ नहीं आलस आ जाता है।

सुवामा-तो यह काम मुझे सौंप दो। भोजन बनाना स्त्रियों के लिए सबसे आवश्यक बात है।

सुशीला-अभी चूल्हे के सामन उससे बैठा न जायेगा।

सुवामा-काम करने से ही आता है।

सुशीला-(झेंपते हुए) फूल-से गाल कुम्हला जायेंगे।

सुवामा- (हंसकर) बिना फूल के मुरझाये कहीं फल लगते हैं?

दूसरे दिन से विरजन भोजन बनाने लगी। पहले दस-पांच दिन उसे चूल्हे के सामने बैठने में बड़ा कष्ट हुआ। आग न जलती, फूंकने लगती तो नेञों से जल बहता। वे बूटी की भांति लाल हो जाते। चिनगारियों से कई रेशमी साड़ियां सत्यानाथ हो गयीं। हाथों में छाले पड़ गये। परन्तु क्रमश: सारे क्लेश दूर हो गये। सुवामा ऐसी सुशीला स्ञी थी कि कभी रुष्ट न होती, प्रतिदिन उसे पुचकारकर काम में लगाय रहती।

अभी विरजन को भोजन बनाते दो मास से अधिक न हुए होंगे कि एक दिन उसने प्रताप से कहा- लल्लू,मुझे भोजन बनाना आ गया।

प्रताप-सच।

विरजन-कल चाची ने मेर बनाया भोजन किया था। बहुत प्रसन्न।

प्रताप-तो भई, एक दिन मुझे भी नेवता दो।

विरजन ने प्रसन्न होकर कहा-अच्छा,कल।

दूसरे दिन नौ बजे विरजन ने प्रताप को भोजन करने के लिए बुलाया। उसने जाकर देखा तो चौका लगा हुआ है। नवीन मिट्टी की मीटी-मीठी सुगन्ध आ रही है। आसन स्वच्छता से बिछा हुआ है। एक थाली में चावल और चपातियाँ हैं। दाल और तरकारियॉँ अलग-अलग कटोरियों में रखी हुई हैं। लोटा और गिलास पानी से भरे हुए रखे हैं। यह स्वच्छता और ढंग देखकर प्रताप सीधा मुंशी संजीवनलाल के पास गया और उन्हें लाकर चौके के सामने खड़ा कर दिया। मुंशीजी खुशी से उछल पड़े। चट कपड़े उतार, हाथ-पैर धो प्रताप के साथ चौके में जा बैठे। बेचारी विरजन क्या जानती थी कि महाशय भी बिना बुलाये पाहुने हो जायेंगे। उसने केवल प्रताप के लिए भोजन बनाया था। वह उस दिन बहुत लजायी और दबी ऑंखों से माता की ओर देखने लगी। सुशीला ताड़ गयी। मुस्कराकर मुंशीजी से बोली-तुम्हारे लिए अलग भोजन बना है। लड़कों के बीच में क्या जाके कूद पड़े?

वृजरानी ने लजाते हुए दो थालियों में थोड़ा-थोड़ा भोजन परोसा।

मुंशीजी-विरजन ने चपातियाँ अच्छी बनायी हैं। नर्म, श्वेत और मीठी।

प्रताप-मैंने ऐसी चपातियॉँ कभी नहीं खायीं। सालन बहुत स्वादिष्ट है।

विरजन ! चाचा को शोरवेदार आलू दो,’ यह कहकर प्रताप हँने लगा। विरजन ने लजाकर सिर नीचे कर लिया। पतीली शुष्क हो रही थी।

सुशीली-(पति से) अब उठोगे भी, सारी रसोई चट कर गये, तो भी अड़े बैठे हो!

मुंशीजी-क्या तुम्हारी राल टपक रही है?

निदान दोनों रसोई की इतिश्री करके उठे। मुंशीजी ने उसी समय एक मोहर निकालकर विरजन को पुरस्कार में दी।

चिट्ठाजगत पर सम्बन्धित: बजार सम्बन्धित चिट्ठे">बजार,