Friday, June 15, 2007
Wednesday, June 13, 2007
अपनी बात
राहुल
पहले तो मैंने सोचा था कि हरी पाठक से उलझा रहू या फिर अयोध्या मे घूमू टहलूं । दोस्तो के साथ मिलकर एक ऐसा बजार बनाऊ ,जहाँ हर कोई आ जा सके। चकाचक चांदनी चौक की तरह। तीखी चाट , ठंडे गुपचुप ! सबकुछ
लज्जत दार ! कुल मिलाकर मैं इसमे इतना ज्यादा रम गया था खुद की ही तरह ब्लोग के होने और न होने पर भी सोचने लगा था। लेकिन प्रतिरोध नाम के नए ब्लोग पर बेंगानी बंधुओ की टिपण्णी पढ़कर मैं इतना ज्यादा आवेशित हो गया कि उस आवेश में मैंने कुछ अपशब्द इस्तेमाल कर दिए। जाहिर है वो सब कुछ भावावेश मे ही था। बजार पर अवैध अतिक्रमण की वह विवादित पोस्ट , जिसकी भाषा से हिंदी चिठ्ठा जगत के कई चिट्ठाकार काफी दुःखी हो गए हैं और मेरे विचार से ऐसी भाषा से उनका दुःखी होना स्वाभाविक भी है । ऐसे भाषा से कोई भी दुःखी हो जाएगा। लेकिन मेरी उस पोस्ट से मेरा किसी को व्यक्तिगत रुप से हर्ट करने का ना तो कोई कारण है और ना ही मेरी कोई मंशा। इस लिए मुझे इसका हार्दिक खेद है और मैं उन शब्दों को वापस ले रहा हूँ। मेरा विनम्र निवेदन है कि मेरी उस पोस्ट मे कही बातों को प्रतीकात्मक रुप से देखा जाय ना कि किसी व्यक्ति विशेष के लिए जान कर । नारादमुनी का मैं परम भक्त हूँ और उनकी इच्छानुसार मैं वह पोस्ट भी हटा रहा हूँ... और एक बार फिर से , अगर किसी भी व्यक्ति विशेष को केरे इस कृत्य से दुःख पंहुचा है , खासकर बेंगाणी बंधुओं को , मैं एक बार फिर से अपना खेद प्रकट करता हूँ।
लेकिन उस लेख को लिखने के पीछे जो मूल बात थी , वह तो साम्प्रदायिकता के विरुद्ध थी। उसे कैसे नज़र अंदाज़ किया जाय? अपने स्वाभाविक आक्रोश मे आकर मैं भावना मे बह गया । और उसके एक परिणाम स्वरूप मेरे ब्लोग को नारादमुनी ने अपने घर से निष्काषित करने का कदम उठाया , या उन्हें उठाना पड़ा। यह काफी दुखद है। नारद के बिना हमारा क्या होगा ? लेकिन नारद जी और जो लोग भी साम्प्रदायिकता विरोधी नही है , फिर वो चाहे जिस किसी के द्वारा की या कराई जा रही है , उनसे मेरे कुछ सवाल हैं जिनके उत्तर उस पोस्ट के तत्व को समझकर अपेक्षित थे । साम्प्रदायिकता की लडाई तो पूरे भारतीय समाज मे चल रही है । लोकतंत्र का सबसे बड़ा सवाल अभी तक उसी तरह से अपनी जगह पूरी मजबूती से खड़ा हुआ है तो क्यों ? इसका उत्तर है किसी के पास ? ये राजनीति नही । मुझमे अभी तक इतनी अकल नही कि मैं राजनीति को समझ पाऊं फिर भी नारद जी , क्या आपकी कार्यवाही किसी का पक्ष तो नही ले रही है ? असगर साहब की कहानिया विचलित कर देती है। अयोध्या का रहने वाला हूँ , इसलिये काफी कुछ देखा सहा है तो असगर साहब से एक दर्द का रिश्ता भी बनता है , ये रिश्ता लेखक और पाठक के बीच का सबसे पवित्र भावनात्मक रिश्ता होता है और उस रिश्ते पर कोई कीचड़ उछाले , तो मैं क्या कोई आम आदमी भी भावावेश मे बहकर कितनी गलियाँ देता है ये मैंने आज सुबह अपने पान वाले दोस्त ह्रदय से उसका मन लेने के लिए , कि देखते हैं आम आदमी जो भगवान से डरता है वो क्या कहता है ? ह्रदय ने वो पोस्ट पढी , शायद मेरी और उसकी भी भाषा वही थी जो कोई भी आदमी पान की दुकान पर खड़ा होकर करता है और रोज़ करता है , इसलिये उसने छूटते ही कहा कि मोदी .... को गोली मार देनी चाहिऐ। मेरा फिर से विनम्र निवेदन है कि इसे अन्यथा ना लिया जाय। मर्म यही है कि वो इस पोस्ट के पीछे छुपी बात को पहचान गया। इसलिये उसकी प्रतिक्रया उस जगह पर हुई। ना कि भाषा पर। ये पूरी तरह से एक आम आदमी था , ज्यादा पढा लिखा तो नही लेकिन साम्प्रदायिकता क्या होती है और उसके परिणाम क्या है , ये उसे पता है। और मेरा भी मतलब पूरी एक विचारधारा के विरोध से ही था ना कि किसी व्यक्ति विशेष के लिए। चलिये मान लेते हैं कि ह्रदय कुछ समता वादी हैं , लेकिन अगर इस बात पर गौर किया जाय कि अभी भी काफी सारी तादाद ऐसी है जो साम्प्रदायिकता की पक्षधर है , उसे कैसे नज़रअंदाज किया जाय ? ईमानदारी से मुझे एक बात बताइए कि क्या साम्प्रदायिकता का विरोध करना एक मानवीय धर्म नही ? और अगर इस सवाल को ऐसे ही छोड़ दिया जाय तो जो हमारी गंगा जमुनी तहजीब है , सैकड़ों हज़ारों साल से भारत मे एकसाथ मिलकर रहने की रवायत है , उसका क्या होगा ? सब जानते हैं की ये विचारधारा कहॉ कहॉ को तबाह और बरबाद करती हुई अपने हिंदुस्तान मे पंहुची और उसने किसे अपना वैचारिक पुत्र बनाया और अजीब तरह का वंशवाद कायम किया। और इस विचारक वंश ने पिछले तीन चार दशक से कितनी अशांति फैला रखी है , कितना कत्ले आम किया है? मैं ये बात भी स्वीकार करता हूँ की दंगो मे हिंदू भी मारे गए लेकिन इसका क्या जवाब है की सन १९३९-३५ से अब तक हुए दंगो मे हुई मौतों का डाटा देखता हूँ तो मुझे मुसलमान बिरादरी की संख्या मारे गए हिंदुओं से कम से कम चार गुना ज्यादा क्यों दिखाई देती है ? उस पोस्ट को लिखने की जो मेरी मूल भावना जो थी वह यही थी की इस तरीके के जो विद्वेष समाज मे चल रहे हैं , वो गलत है और मेरा उससे विरोध है। नारद जी , मैं आपका भक्त हूँ लेकिन ईमानदारी से कहू तो मुझे आपका ये कदम पता नही क्यों ओवर री एक्शन जैसा लगता है । क्या यह एक ऐसा मुद्दा था जिसको बातचीत द्वारा हल नही किया जा सकता था ? अगर मैं इस आशा से की मेरा भारत एक सोने का पंछी हो , जहाँ कोई ना लड़े , कोई किसी कौम का कत्लेआम ना करे , अमन हो , चैन हो , कुछ कड़े तरीके से विरोध दर्ज़ करता हूँ तो ये इतना बड़ा अपराध नही की इसपर पूरे एक ब्लोग को बैन कर दिया जाय। इस पर आपको लोकतांत्रिक तरीके विचार करना चाहिऐ और ब्लोग पर से बैन हटाकर एक खुशहाल भारत , मेरा भारत , आपका भारत और सबका भारत बनाने के लिए इस बहस मे खुद भी शामिल होना चाहिऐ । ये जरूरी है नारद जी , इस सवाल को यूं ही खारिज कर देने से ये सवाल ख़त्म नही हो जाएगा। ये लगातार हमारे समाज को खोखला करता जा रहा है । इस पर बहस होनी चाहिऐ। भाषा को माध्यम ही रहने दीजिए । नारादमुनी जी , मैं आपकी प्रतिष्ठा से भली भांति परिचित हूँ और आपके हिंदी ब्लोग्गिंग के क्षेत्र मे महान योगदान से अभिभूत भी । ये लोकतंत्र के सबसे गम्भीर सवाल हैं और इन पर बहस कराने से आपकी प्रतिष्ठा घटेगी नही बल्कि बढ़ेगी ही।
(काम की अधिकता के कारण मैं कही भी किसी को जवाब नही दे पाया इसलिये इस काम मे देर हुई जिसका मुझे खेद है )
राहुल
पहले तो मैंने सोचा था कि हरी पाठक से उलझा रहू या फिर अयोध्या मे घूमू टहलूं । दोस्तो के साथ मिलकर एक ऐसा बजार बनाऊ ,जहाँ हर कोई आ जा सके। चकाचक चांदनी चौक की तरह। तीखी चाट , ठंडे गुपचुप ! सबकुछ
लज्जत दार ! कुल मिलाकर मैं इसमे इतना ज्यादा रम गया था खुद की ही तरह ब्लोग के होने और न होने पर भी सोचने लगा था। लेकिन प्रतिरोध नाम के नए ब्लोग पर बेंगानी बंधुओ की टिपण्णी पढ़कर मैं इतना ज्यादा आवेशित हो गया कि उस आवेश में मैंने कुछ अपशब्द इस्तेमाल कर दिए। जाहिर है वो सब कुछ भावावेश मे ही था। बजार पर अवैध अतिक्रमण की वह विवादित पोस्ट , जिसकी भाषा से हिंदी चिठ्ठा जगत के कई चिट्ठाकार काफी दुःखी हो गए हैं और मेरे विचार से ऐसी भाषा से उनका दुःखी होना स्वाभाविक भी है । ऐसे भाषा से कोई भी दुःखी हो जाएगा। लेकिन मेरी उस पोस्ट से मेरा किसी को व्यक्तिगत रुप से हर्ट करने का ना तो कोई कारण है और ना ही मेरी कोई मंशा। इस लिए मुझे इसका हार्दिक खेद है और मैं उन शब्दों को वापस ले रहा हूँ। मेरा विनम्र निवेदन है कि मेरी उस पोस्ट मे कही बातों को प्रतीकात्मक रुप से देखा जाय ना कि किसी व्यक्ति विशेष के लिए जान कर । नारादमुनी का मैं परम भक्त हूँ और उनकी इच्छानुसार मैं वह पोस्ट भी हटा रहा हूँ... और एक बार फिर से , अगर किसी भी व्यक्ति विशेष को केरे इस कृत्य से दुःख पंहुचा है , खासकर बेंगाणी बंधुओं को , मैं एक बार फिर से अपना खेद प्रकट करता हूँ।
लेकिन उस लेख को लिखने के पीछे जो मूल बात थी , वह तो साम्प्रदायिकता के विरुद्ध थी। उसे कैसे नज़र अंदाज़ किया जाय? अपने स्वाभाविक आक्रोश मे आकर मैं भावना मे बह गया । और उसके एक परिणाम स्वरूप मेरे ब्लोग को नारादमुनी ने अपने घर से निष्काषित करने का कदम उठाया , या उन्हें उठाना पड़ा। यह काफी दुखद है। नारद के बिना हमारा क्या होगा ? लेकिन नारद जी और जो लोग भी साम्प्रदायिकता विरोधी नही है , फिर वो चाहे जिस किसी के द्वारा की या कराई जा रही है , उनसे मेरे कुछ सवाल हैं जिनके उत्तर उस पोस्ट के तत्व को समझकर अपेक्षित थे । साम्प्रदायिकता की लडाई तो पूरे भारतीय समाज मे चल रही है । लोकतंत्र का सबसे बड़ा सवाल अभी तक उसी तरह से अपनी जगह पूरी मजबूती से खड़ा हुआ है तो क्यों ? इसका उत्तर है किसी के पास ? ये राजनीति नही । मुझमे अभी तक इतनी अकल नही कि मैं राजनीति को समझ पाऊं फिर भी नारद जी , क्या आपकी कार्यवाही किसी का पक्ष तो नही ले रही है ? असगर साहब की कहानिया विचलित कर देती है। अयोध्या का रहने वाला हूँ , इसलिये काफी कुछ देखा सहा है तो असगर साहब से एक दर्द का रिश्ता भी बनता है , ये रिश्ता लेखक और पाठक के बीच का सबसे पवित्र भावनात्मक रिश्ता होता है और उस रिश्ते पर कोई कीचड़ उछाले , तो मैं क्या कोई आम आदमी भी भावावेश मे बहकर कितनी गलियाँ देता है ये मैंने आज सुबह अपने पान वाले दोस्त ह्रदय से उसका मन लेने के लिए , कि देखते हैं आम आदमी जो भगवान से डरता है वो क्या कहता है ? ह्रदय ने वो पोस्ट पढी , शायद मेरी और उसकी भी भाषा वही थी जो कोई भी आदमी पान की दुकान पर खड़ा होकर करता है और रोज़ करता है , इसलिये उसने छूटते ही कहा कि मोदी .... को गोली मार देनी चाहिऐ। मेरा फिर से विनम्र निवेदन है कि इसे अन्यथा ना लिया जाय। मर्म यही है कि वो इस पोस्ट के पीछे छुपी बात को पहचान गया। इसलिये उसकी प्रतिक्रया उस जगह पर हुई। ना कि भाषा पर। ये पूरी तरह से एक आम आदमी था , ज्यादा पढा लिखा तो नही लेकिन साम्प्रदायिकता क्या होती है और उसके परिणाम क्या है , ये उसे पता है। और मेरा भी मतलब पूरी एक विचारधारा के विरोध से ही था ना कि किसी व्यक्ति विशेष के लिए। चलिये मान लेते हैं कि ह्रदय कुछ समता वादी हैं , लेकिन अगर इस बात पर गौर किया जाय कि अभी भी काफी सारी तादाद ऐसी है जो साम्प्रदायिकता की पक्षधर है , उसे कैसे नज़रअंदाज किया जाय ? ईमानदारी से मुझे एक बात बताइए कि क्या साम्प्रदायिकता का विरोध करना एक मानवीय धर्म नही ? और अगर इस सवाल को ऐसे ही छोड़ दिया जाय तो जो हमारी गंगा जमुनी तहजीब है , सैकड़ों हज़ारों साल से भारत मे एकसाथ मिलकर रहने की रवायत है , उसका क्या होगा ? सब जानते हैं की ये विचारधारा कहॉ कहॉ को तबाह और बरबाद करती हुई अपने हिंदुस्तान मे पंहुची और उसने किसे अपना वैचारिक पुत्र बनाया और अजीब तरह का वंशवाद कायम किया। और इस विचारक वंश ने पिछले तीन चार दशक से कितनी अशांति फैला रखी है , कितना कत्ले आम किया है? मैं ये बात भी स्वीकार करता हूँ की दंगो मे हिंदू भी मारे गए लेकिन इसका क्या जवाब है की सन १९३९-३५ से अब तक हुए दंगो मे हुई मौतों का डाटा देखता हूँ तो मुझे मुसलमान बिरादरी की संख्या मारे गए हिंदुओं से कम से कम चार गुना ज्यादा क्यों दिखाई देती है ? उस पोस्ट को लिखने की जो मेरी मूल भावना जो थी वह यही थी की इस तरीके के जो विद्वेष समाज मे चल रहे हैं , वो गलत है और मेरा उससे विरोध है। नारद जी , मैं आपका भक्त हूँ लेकिन ईमानदारी से कहू तो मुझे आपका ये कदम पता नही क्यों ओवर री एक्शन जैसा लगता है । क्या यह एक ऐसा मुद्दा था जिसको बातचीत द्वारा हल नही किया जा सकता था ? अगर मैं इस आशा से की मेरा भारत एक सोने का पंछी हो , जहाँ कोई ना लड़े , कोई किसी कौम का कत्लेआम ना करे , अमन हो , चैन हो , कुछ कड़े तरीके से विरोध दर्ज़ करता हूँ तो ये इतना बड़ा अपराध नही की इसपर पूरे एक ब्लोग को बैन कर दिया जाय। इस पर आपको लोकतांत्रिक तरीके विचार करना चाहिऐ और ब्लोग पर से बैन हटाकर एक खुशहाल भारत , मेरा भारत , आपका भारत और सबका भारत बनाने के लिए इस बहस मे खुद भी शामिल होना चाहिऐ । ये जरूरी है नारद जी , इस सवाल को यूं ही खारिज कर देने से ये सवाल ख़त्म नही हो जाएगा। ये लगातार हमारे समाज को खोखला करता जा रहा है । इस पर बहस होनी चाहिऐ। भाषा को माध्यम ही रहने दीजिए । नारादमुनी जी , मैं आपकी प्रतिष्ठा से भली भांति परिचित हूँ और आपके हिंदी ब्लोग्गिंग के क्षेत्र मे महान योगदान से अभिभूत भी । ये लोकतंत्र के सबसे गम्भीर सवाल हैं और इन पर बहस कराने से आपकी प्रतिष्ठा घटेगी नही बल्कि बढ़ेगी ही।
(काम की अधिकता के कारण मैं कही भी किसी को जवाब नही दे पाया इसलिये इस काम मे देर हुई जिसका मुझे खेद है )
Sunday, June 03, 2007
क्या ब्लोग्गिंग भगोडापन है ??
पहले मैं यह स्पष्ट कर दूं कि मैं भी उन भगोड़ों की जमात मे शामिल हूँ जो विशुद्ध सामाजिक राजनितिक संघर्ष से किसी ना किसी बहाने से भाग आये हैं।
मुझे लगता है कि ब्लोग्गिंग या जो कुछ भी हल्ला ब्लॉग्स पर मच रह है उनकी सामाजिकता या सामाजिक दायित्व नही है। ब्लॉग कुछ एक खास लोगों के लिए हैं और हिंदी ब्लॉग मे ये भी नही कहा जा सकता कि अंग्रेजी अखबारों की तरह ये उन चंद लोगो तक पहुचते हैं जो इसी पढ़कर कुछ करेंगे। तो फिर सवाल उठता है कि ब्लोग्गिंग क्यों? ये सिर्फ एक स्वांत सुखाय कर्म है जिसके शायद ही कोई सामाजिक आयाम हो , फायदे हो। अभी मैं कोई पोस्ट पढ़ रह था , उसमे किसी ने कहा था कि जो लेखक नही हैं वो भी यहाँ आकर उलटी सीधी कलम चलाकर लेखक बन जाते हैं और गिने चुने लोगों से दाद भी पा जाते हैं । लेकिन जिसने भी इसे लिखा , मेरा सवाल उससे है कि लेखक होने का कोई सर्टिफिकेट होता है क्या जो आप जारी करेंगे ? फ़ालतू की बहस !
खैर मुझे ब्लॉग का कोई भी ऐसा फायदा जो सीधे समाज तक पन्हुचता हो , नज़र नही आता। हो सकता है कुछ लोगो को लगता है कि वो दुनिया बदल रहे हैं ब्लोग्गिंग से। और इसी जोश मे कई बार झगडे होते हैं और लोग बुरा भी मान जाते हैं। पिद्दी सी हिंदी ब्लॉग की दुनिया और उसमे भी इतने फसाद! ब्लोग्गिंग के कोई सामाजिक मायने हैं क्या ?
पहले मैं यह स्पष्ट कर दूं कि मैं भी उन भगोड़ों की जमात मे शामिल हूँ जो विशुद्ध सामाजिक राजनितिक संघर्ष से किसी ना किसी बहाने से भाग आये हैं।
मुझे लगता है कि ब्लोग्गिंग या जो कुछ भी हल्ला ब्लॉग्स पर मच रह है उनकी सामाजिकता या सामाजिक दायित्व नही है। ब्लॉग कुछ एक खास लोगों के लिए हैं और हिंदी ब्लॉग मे ये भी नही कहा जा सकता कि अंग्रेजी अखबारों की तरह ये उन चंद लोगो तक पहुचते हैं जो इसी पढ़कर कुछ करेंगे। तो फिर सवाल उठता है कि ब्लोग्गिंग क्यों? ये सिर्फ एक स्वांत सुखाय कर्म है जिसके शायद ही कोई सामाजिक आयाम हो , फायदे हो। अभी मैं कोई पोस्ट पढ़ रह था , उसमे किसी ने कहा था कि जो लेखक नही हैं वो भी यहाँ आकर उलटी सीधी कलम चलाकर लेखक बन जाते हैं और गिने चुने लोगों से दाद भी पा जाते हैं । लेकिन जिसने भी इसे लिखा , मेरा सवाल उससे है कि लेखक होने का कोई सर्टिफिकेट होता है क्या जो आप जारी करेंगे ? फ़ालतू की बहस !
खैर मुझे ब्लॉग का कोई भी ऐसा फायदा जो सीधे समाज तक पन्हुचता हो , नज़र नही आता। हो सकता है कुछ लोगो को लगता है कि वो दुनिया बदल रहे हैं ब्लोग्गिंग से। और इसी जोश मे कई बार झगडे होते हैं और लोग बुरा भी मान जाते हैं। पिद्दी सी हिंदी ब्लॉग की दुनिया और उसमे भी इतने फसाद! ब्लोग्गिंग के कोई सामाजिक मायने हैं क्या ?
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