Monday, October 29, 2007

मेरठ के ब्लोगर कृपया ध्यान दें।

मेरठ के ब्लोगर पर मैं कुछ लिख रहा हूँ। इसलिए मेरा मेरठ के ब्लोगर बंधुओं से अनुरोध है और निवेदन भी , मुझसे सम्पर्क करें।

मैं।
राहुल
मोबाइल - +919927992404

Tuesday, July 24, 2007

महामहिम कमजोर हैं
बीबीसी पर हुए एक सर्वेक्षण मे प्रतिभा पाटिल को ५०% से ज्यादा लोगो ने कमजोर राष्ट्रपति माना है।

Saturday, July 21, 2007

रिक्शेवाले की ठुसकी

किससे आती होगी असली बदबू ? मोहल्ले के कूड़े के ढ़ेर पर खौराये हुए कुत्ते से जो हमेशा पिछली टांग उठाकर कान को खबर खबर खुजलाता है और फिर पन्नियों के ढ़ेर मे बंद कल परसो के चावल दाल पर मुह मारता है? सड़क का वह पागल जिसके बाल बढ़े होते हैं और जब से पागल हुआ है तब से नहाया नही हुआ है ? बाल उसके बडे बडे हो गए हैं , उनमे लटें बन गई हैं मैल की । नाली मे लोटता हुआ सूअर जो आपको वह से गुजरते तो देखता है लेकिन परवाह नही करता । खासकर आपकी। रेलवे स्टेशन की फ्लाई ओवर वाली सीढ़ी पर बैठा वह यात्री जो बार बार अपनी नाक मे ऊँगली डालता है और फिर उसे निकाल कर देखता है कि हाँ .... अबकी आई असली चीज़ पकड़ मे । क्या उससे आती है असली बदबू ? किससे आती होगी असली बदबू ? वह रिक्शेवाला , जो आपको पीछे बैठाने पर बार बार ठुसकी मारता रहता है , क्या उससे ? या फिर उस रिक्शेवाले की सवारी जो उसके ठुसकी मारने की गंध का वर्णन करके सबको बताता है ? शहरी कीचड मे फसा हुआ पैर या फिर गाय के गोबर मे बूड गई चप्पल से ? बहुत सारी बदबूएँ हैं.... एक तुम भी हो.... सबसे बड़ी बदबू। एक मैं भी हूँ। सबसे बड़ी बदबू।
फ़ालतू के लोग

फ़ालतू मे जीते लोग
फालतू मे चलते लोग
फ़ालतू मे दौड़ते लोग
फ़ालतू मे खाते लोग
फ़ालतू के हैं ये लोग
फ़ालतू मे ही सड़ते लोग
फ़ालतू मे मरते लोग
फ़ालतू मे कहते लोग
कि हम तो
संवेदना के काका हैं ।
असंवेदनात्मक रचनात्मकता के शिकार

उनके पास बडे बडे काम होते हैं। और उन कामो से भी बड़ी बड़ी सोच भी। सबसे पहले तो सोचने मे ही इतना वक़्त लग जाता है कि कामो की फुर्सत ही नही मिल पाती। आख़िर करते क्या रहे वो? जिंदगी भर सोचते ही तो रहे। लेकिन जब कामो की फुर्सत मिलती है तो उन्होने जो बड़ा बड़ा सोचा होता है , उसी के हिसाब से वो और बड़ा बड़ा लिखने लगते हैं। लिखना उनका काम है। लिखना उनकी भाषायी उल्टी है। जिसे किये बिना दिन मे दो तीन बार उन्हें अपच हो जाता है। और जब अपच हो जाता है तो उसे मिटाने के लिए बड़ी बड़ी किताबो की गोली बनाकर दिन मे नियम से तीन या चार बार लेने लगते हैं। क्या लिखा होगा उन किताबो मे ? संवेदनशील बचपन और उसमे असंवेदनशील लोगो का दखल? या फिर समाज को बदलने मे जुटा एक संवेदनशील युवा की कहानी ? या फिर किसी ने कुछ महसूस किया और उसका लिखा उन्हें अच्छा लगा। उसका महसूसना उन्हें होमियोपैथी की मीठी गोली लगता है। जिसे वो चार चार गोली दिन मे चार बार की तरह मुह मे डालकर चुम्भलाते रहते हैं। उनके पास वक़्त नही है। कितने सारे तो काम हैं करने को। मीठी गोली खाना , सोचना , संवेदनशीलता को महसूस करना , उसकी दाद देना और इसी तरह के बहुत सारे काम। पूरी की पूरी लाइन है कामो की। फुर्सत कहा है।
दरअसल संवेदनशील साहित्य पढ़ते पढ़ते उनकी सारी की सारी संवेदनशीलता कुंद पद गई है । या फिर पूरी तरह से ख़त्म हो गई है। उन्हें समाज तो नजर आता है लेकिन उसमे रहने वाले लोग नही। उन्हें चेर्निवेश्की बनना है या फिर ब्रेख्त ।कुल मिलाकर उन्हें महान बनना है और ये बात उनकी नज़र के सामने आकर उन्हें पेट तक आनंदित कर जाती है कि वो महान बनने की राह पर हैं। उन्हें अपने महान बनना तो महसूस होता है लेकिन इसकी पट्टी इतनी मोटी हो गई है कि और कुछ न तो दिखाई देता है और न ही वे देखना चाहते हैं। जिंदगी मे ऐसे लोगो को गाली देने का भी कोई फायदा नही। क्योंकि एक मुलम्मा उनकी आँखों पर छा गया है। आनंद दे रहा है। सुख दे रहा है। सुख की ही तो तलाश थी उन्हें। मिल रहा है। ये सृजनशील रचनात्मक असंवेदना के शिकार हैं। कोई इनकी मदद करे। वैसे बाते तो बहुत हैं लेकिन अभी लिहाज कर रहा हू जो कि नही करना चाहिऐ था। कतई नही करना चाहिऐ था। ऐसे लोग लिहाज के अधिकारी नही होते।