Saturday, July 21, 2007

असंवेदनात्मक रचनात्मकता के शिकार

उनके पास बडे बडे काम होते हैं। और उन कामो से भी बड़ी बड़ी सोच भी। सबसे पहले तो सोचने मे ही इतना वक़्त लग जाता है कि कामो की फुर्सत ही नही मिल पाती। आख़िर करते क्या रहे वो? जिंदगी भर सोचते ही तो रहे। लेकिन जब कामो की फुर्सत मिलती है तो उन्होने जो बड़ा बड़ा सोचा होता है , उसी के हिसाब से वो और बड़ा बड़ा लिखने लगते हैं। लिखना उनका काम है। लिखना उनकी भाषायी उल्टी है। जिसे किये बिना दिन मे दो तीन बार उन्हें अपच हो जाता है। और जब अपच हो जाता है तो उसे मिटाने के लिए बड़ी बड़ी किताबो की गोली बनाकर दिन मे नियम से तीन या चार बार लेने लगते हैं। क्या लिखा होगा उन किताबो मे ? संवेदनशील बचपन और उसमे असंवेदनशील लोगो का दखल? या फिर समाज को बदलने मे जुटा एक संवेदनशील युवा की कहानी ? या फिर किसी ने कुछ महसूस किया और उसका लिखा उन्हें अच्छा लगा। उसका महसूसना उन्हें होमियोपैथी की मीठी गोली लगता है। जिसे वो चार चार गोली दिन मे चार बार की तरह मुह मे डालकर चुम्भलाते रहते हैं। उनके पास वक़्त नही है। कितने सारे तो काम हैं करने को। मीठी गोली खाना , सोचना , संवेदनशीलता को महसूस करना , उसकी दाद देना और इसी तरह के बहुत सारे काम। पूरी की पूरी लाइन है कामो की। फुर्सत कहा है।
दरअसल संवेदनशील साहित्य पढ़ते पढ़ते उनकी सारी की सारी संवेदनशीलता कुंद पद गई है । या फिर पूरी तरह से ख़त्म हो गई है। उन्हें समाज तो नजर आता है लेकिन उसमे रहने वाले लोग नही। उन्हें चेर्निवेश्की बनना है या फिर ब्रेख्त ।कुल मिलाकर उन्हें महान बनना है और ये बात उनकी नज़र के सामने आकर उन्हें पेट तक आनंदित कर जाती है कि वो महान बनने की राह पर हैं। उन्हें अपने महान बनना तो महसूस होता है लेकिन इसकी पट्टी इतनी मोटी हो गई है कि और कुछ न तो दिखाई देता है और न ही वे देखना चाहते हैं। जिंदगी मे ऐसे लोगो को गाली देने का भी कोई फायदा नही। क्योंकि एक मुलम्मा उनकी आँखों पर छा गया है। आनंद दे रहा है। सुख दे रहा है। सुख की ही तो तलाश थी उन्हें। मिल रहा है। ये सृजनशील रचनात्मक असंवेदना के शिकार हैं। कोई इनकी मदद करे। वैसे बाते तो बहुत हैं लेकिन अभी लिहाज कर रहा हू जो कि नही करना चाहिऐ था। कतई नही करना चाहिऐ था। ऐसे लोग लिहाज के अधिकारी नही होते।

1 आपकी बात:

manthan said...

tum sank gaye ho. sankipan me log asi harkatey karte hain