Monday, October 29, 2007

मेरठ के ब्लोगर कृपया ध्यान दें।

मेरठ के ब्लोगर पर मैं कुछ लिख रहा हूँ। इसलिए मेरा मेरठ के ब्लोगर बंधुओं से अनुरोध है और निवेदन भी , मुझसे सम्पर्क करें।

मैं।
राहुल
मोबाइल - +919927992404

Tuesday, July 24, 2007

महामहिम कमजोर हैं
बीबीसी पर हुए एक सर्वेक्षण मे प्रतिभा पाटिल को ५०% से ज्यादा लोगो ने कमजोर राष्ट्रपति माना है।

Saturday, July 21, 2007

रिक्शेवाले की ठुसकी

किससे आती होगी असली बदबू ? मोहल्ले के कूड़े के ढ़ेर पर खौराये हुए कुत्ते से जो हमेशा पिछली टांग उठाकर कान को खबर खबर खुजलाता है और फिर पन्नियों के ढ़ेर मे बंद कल परसो के चावल दाल पर मुह मारता है? सड़क का वह पागल जिसके बाल बढ़े होते हैं और जब से पागल हुआ है तब से नहाया नही हुआ है ? बाल उसके बडे बडे हो गए हैं , उनमे लटें बन गई हैं मैल की । नाली मे लोटता हुआ सूअर जो आपको वह से गुजरते तो देखता है लेकिन परवाह नही करता । खासकर आपकी। रेलवे स्टेशन की फ्लाई ओवर वाली सीढ़ी पर बैठा वह यात्री जो बार बार अपनी नाक मे ऊँगली डालता है और फिर उसे निकाल कर देखता है कि हाँ .... अबकी आई असली चीज़ पकड़ मे । क्या उससे आती है असली बदबू ? किससे आती होगी असली बदबू ? वह रिक्शेवाला , जो आपको पीछे बैठाने पर बार बार ठुसकी मारता रहता है , क्या उससे ? या फिर उस रिक्शेवाले की सवारी जो उसके ठुसकी मारने की गंध का वर्णन करके सबको बताता है ? शहरी कीचड मे फसा हुआ पैर या फिर गाय के गोबर मे बूड गई चप्पल से ? बहुत सारी बदबूएँ हैं.... एक तुम भी हो.... सबसे बड़ी बदबू। एक मैं भी हूँ। सबसे बड़ी बदबू।
फ़ालतू के लोग

फ़ालतू मे जीते लोग
फालतू मे चलते लोग
फ़ालतू मे दौड़ते लोग
फ़ालतू मे खाते लोग
फ़ालतू के हैं ये लोग
फ़ालतू मे ही सड़ते लोग
फ़ालतू मे मरते लोग
फ़ालतू मे कहते लोग
कि हम तो
संवेदना के काका हैं ।
असंवेदनात्मक रचनात्मकता के शिकार

उनके पास बडे बडे काम होते हैं। और उन कामो से भी बड़ी बड़ी सोच भी। सबसे पहले तो सोचने मे ही इतना वक़्त लग जाता है कि कामो की फुर्सत ही नही मिल पाती। आख़िर करते क्या रहे वो? जिंदगी भर सोचते ही तो रहे। लेकिन जब कामो की फुर्सत मिलती है तो उन्होने जो बड़ा बड़ा सोचा होता है , उसी के हिसाब से वो और बड़ा बड़ा लिखने लगते हैं। लिखना उनका काम है। लिखना उनकी भाषायी उल्टी है। जिसे किये बिना दिन मे दो तीन बार उन्हें अपच हो जाता है। और जब अपच हो जाता है तो उसे मिटाने के लिए बड़ी बड़ी किताबो की गोली बनाकर दिन मे नियम से तीन या चार बार लेने लगते हैं। क्या लिखा होगा उन किताबो मे ? संवेदनशील बचपन और उसमे असंवेदनशील लोगो का दखल? या फिर समाज को बदलने मे जुटा एक संवेदनशील युवा की कहानी ? या फिर किसी ने कुछ महसूस किया और उसका लिखा उन्हें अच्छा लगा। उसका महसूसना उन्हें होमियोपैथी की मीठी गोली लगता है। जिसे वो चार चार गोली दिन मे चार बार की तरह मुह मे डालकर चुम्भलाते रहते हैं। उनके पास वक़्त नही है। कितने सारे तो काम हैं करने को। मीठी गोली खाना , सोचना , संवेदनशीलता को महसूस करना , उसकी दाद देना और इसी तरह के बहुत सारे काम। पूरी की पूरी लाइन है कामो की। फुर्सत कहा है।
दरअसल संवेदनशील साहित्य पढ़ते पढ़ते उनकी सारी की सारी संवेदनशीलता कुंद पद गई है । या फिर पूरी तरह से ख़त्म हो गई है। उन्हें समाज तो नजर आता है लेकिन उसमे रहने वाले लोग नही। उन्हें चेर्निवेश्की बनना है या फिर ब्रेख्त ।कुल मिलाकर उन्हें महान बनना है और ये बात उनकी नज़र के सामने आकर उन्हें पेट तक आनंदित कर जाती है कि वो महान बनने की राह पर हैं। उन्हें अपने महान बनना तो महसूस होता है लेकिन इसकी पट्टी इतनी मोटी हो गई है कि और कुछ न तो दिखाई देता है और न ही वे देखना चाहते हैं। जिंदगी मे ऐसे लोगो को गाली देने का भी कोई फायदा नही। क्योंकि एक मुलम्मा उनकी आँखों पर छा गया है। आनंद दे रहा है। सुख दे रहा है। सुख की ही तो तलाश थी उन्हें। मिल रहा है। ये सृजनशील रचनात्मक असंवेदना के शिकार हैं। कोई इनकी मदद करे। वैसे बाते तो बहुत हैं लेकिन अभी लिहाज कर रहा हू जो कि नही करना चाहिऐ था। कतई नही करना चाहिऐ था। ऐसे लोग लिहाज के अधिकारी नही होते।

Monday, July 16, 2007

एक विज्ञापन
हमारी एक सलाह आपके जीवन की दिशा दशा दोनो बदल सकती है
"आल इंडिया खुला चैलेन्ज "

# २१ मिनटों मे हर समस्या का समाधान गारंटी कार्ड के साथ #

जैसा चाहोगे वैसा ही होगा !!!

हमारा काम जैसे राम बाण
चेतावनी:-मेरे किये को काटने वाले को मुह माँगा इनाम !

मनचाहा ब्लोगीकरण स्पेस्लिस्ट

स्पेस्लिस्ट :- ब्लोग मे रुकावट , बंदिश , ब्लोग्गिंग करने वालों मे झगडे , गालियाँ , लिंकित तलाक़ , विरोधी टिप्पणियों से छुटकारा , अग्रीगेटर मुक्ति , ब्लोग हीनता , लिखास की कमी , लेखों की अधिकता , ब्लोगर्स मीट , ब्लोग मैरिज , ब्लोगाशान्ती , और अग्रीगेटर की परेशानियों जैसी जटिल से जटिल समस्याओं का समाधान।

सभी इल्मो की काट हमारे पास है।
ब्लोग मे चोट खाए लोग एक बार मिलें।
एक अगरबत्ती के साथ एक लैपटोप और इण्टरनेट का कनेक्शन साथ लायें।
रूहानी सात इल्मो के बेताज बादशाह
वर्ल्ड फेमस
बाबा ब्लागरी
फोन- 9978668754

गली न-१, पहली मंजिल , बस स्टैंड के सामने , टेढ़ी गली के पास , ट्रांस्फरामर के बगल
फोन- ९९७८६६८७५४
चिट्ठाजगत पर सम्बन्धित: मेरे सम्बन्धित चिट्ठे">मेरे, विज्ञापन सम्बन्धित चिट्ठे">विज्ञापन,

Tuesday, July 03, 2007

धुरविरोधी.... कही हो तो क्षमा करना

मैंने कभी भी सपने मे भी नही सोचा था कि ऐसा होगा। मैंने संजय की मानसिकता के साथ ही साथ मोदी को भी गालियाँ दी। मेरा ब्लोग नारद से निकाल दिया गया। मुझे कोई अफ़सोस नही। कतई अफ़सोस नही। आगे आने वाले समय मे मैं और भी गालियाँ दूंगा और वो भी तब तक जब तक कि ऐसे लोग एक सही लाईन पर नही आ जाते। ये साले लातो के भूत हैं। फालतू की बहस करने से ये सही नही होंगे। इनको सही करने का प्राथमिक उपाय गालियाँ ही हैं और तब भी न हो तो छह इंच छोटा करना पड़ेगा। सही लाईन का मतलब सिर्फ दूसरे धर्म की इज़्ज़त करना नही है बल्कि धर्म को एक सिरे से नकारना है। धर्म तो अफीम है जो सबको नशे मे रख कर उल्टे काम करवाता है। लेकिन फिर भी , कही न कही मुझे लग रह है कि मैं दोषी हू। मैं दोषी हू धुरविरोधी का। जिसके चिठ्ठे के लिए मैं काल बना। अब वही काल मुझे बार बार परेशान कर रह है कि मैंने.... मैंने एक चिठ्ठे की जान ले ली। मैं अपना कुछ भी लिख नही पा रहा हू। ना ही लिखने का मन हो रहा है। दिमाग मे बस एक ही बात घूमती रहती है...मैंने जान ली....मैंने ख़त्म कर दिया... इतना बड़ा पाप !! मैंने किसी की अभिव्यक्ति को बंद कर दिया... आह !! मैं सह नही पा रहा हू। बार बार मैं धुरविरोधी के ब्लाग पर जाता हूँ , इस आशा मे की शायद...शायद उन्होने अपनी पोस्टें फिर से अपने ब्लाग पर चढा दी हों...लेकिन ऐसा नही होता।

मैं बुरी तरह से अपराध बोध से ग्रस्त हूँ। गालियाँ देने के कारण नही बल्कि सिर्फ और सिर्फ इसलिये की धुरविरोधी अब हमारे बीच नही है। क्या करु , समझ मे नही आता। "नैपकिन विवाद " के बाद शायद ये मेरी पहली पोस्ट होगी और शायद आख़िरी भी...पता नही। उम्मीद तो खुद मैं भी लगा रहा हू की आख़िरी न हो। लेकिन चूतियों की जहर बुझी छिः करने की आदत ने ऎसी आग लगाई कि उसका बुझ पाना बहुत मुश्किल है। इस आग की प्रतिआग धुरविरोधी ने लगाई और उसको बुझाना बहुत ही कष्टदायक है। दर्द होता है... । जब भी कुछ लिखने बैठता हूँ , सिर्फ एक नाम दिमाग मे कौंधता है और सारी लिखाई घुस जाती है । कहा हो तुम धुरविरोधी ? मैं अधूरा हू तुम्हारे बिना। और न सिर्फ मैं बल्कि वो सब जो सहमति-असहमति का जनवाद हाथ मे थामे लड़ रहे हैं। तुम्हारी बहुत जरूरत है। सच !! तुमने अपना ब्लाग ही ख़त्म नही किया है....तुमने मुझे भी ख़त्म कर दिया है।
लेकिन हाँ । गंदे नैपकिन जैसी सोच वाले यह कतई न समझे कि उन्हें अब इस बात से गालियाँ पड़नी बंद हो जाएँगी। गालियों से भी न माने तो लात पडेगी और अगर लात से भी न माने तो सर के ऊपर से छह इंच के बाद की जगह नाप लीजिये । परमोद भैया सही कहे थे....
आओ आओ घात लगाएं
घेर घेर के लात लगाएं

किसने कहा हम चिरकुट हैं
कहवैये की तो बाट लगाएं......

Sunday, July 01, 2007

नए पडोसियों से मेल जोल
मुंशी प्रेमचंद

मुंशी संजीवनलाल, जिन्होंने सुवाम का घर भाड़े पर लिया था, बड़े विचारशील मनुष्य थे। पहले एक प्रतिष्ठित पद पर नियुक्त थे, किन्तु अपनी स्वतंत्र इच्छा के कारण अफसरों को प्रसन्न न रख सके। यहां तक कि उनकी रुष्टता से विवश होकर इस्तीफा दे दिया। नौकर के समय में कुछ पूंजी एकत्र कर ली थी, इसलिए नौकरी छोड़ते ही वे ठेकेदारी की ओर प्रवृत्त हुए और उन्होंने परिश्रम द्वारा अल्पकाल में ही अच्छी सम्पत्ति बना ली। इस समय उनकी आय चार-पांच सौ मासिक से कम न थी। उन्होंने कुछ ऐसी अनुभवशालिनी बुद्वि पायी थी कि जिस कार्य में हाथ डालते, उसमें लाभ छोड़ हानि न होती थी।

मुंशी संजीवनलाल का कुटुम्ब बड़ा न था। सन्तानें तो ईश्वर ने कई दीं, पर इस समय माता-पिता के नयनों की पुतली केवल एक पुञी ही थी। उसका नाम वृजरानी था। वही दम्पति का जीवनाश्राम थी।

प्रतापचन्द्र और वृजरानी में पहले ही दिन से मैत्री आरंभ हा गयी। आधे घंटे में दोनों चिड़ियों की भांति चहकने लगे। विरजन ने अपनी गुड़िया, खिलौने और बाजे दिखाये, प्रतापचन्द्र ने अपनी किताबें, लेखनी और चित्र दिखाये। विरजन की माता सुशीला ने प्रतापचन्द्र को गोद में ले लिया और प्यार किया। उस दिन से वह नित्य संध्या को आता और दोनों साथ-साथ खेलते। ऐसा प्रतीत होता था कि दोनों भाई-बहिन है। सुशीला दोनों बालकों को गोद में बैठाती और प्यार करती। घंटों टकटकी लगाये दोनों बच्चों को देखा करती, विरजन भी कभी-कभी प्रताप के घर जाती। विपत्ति की मारी सुवामा उसे देखकर अपना दु:ख भूल जाती, छाती से लगा लेती और उसकी भोली-भाली बातें सुनकर अपना मन बहलाती।

एक दिन मुंशी संजीवनलाल बाहर से आये तो क्या देखते हैं कि प्रताप और विरजन दोनों दफ्तर में कुर्सियों पर बैठे हैं। प्रताप कोई पुस्तक पढ़ रहा है और विरजन ध्यान लगाये सुन रही है। दोनों ने ज्यों ही मुंशीजी को देखा उठ खड़े हुए। विरजन तो दौड़कर पिता की गोद में जा बैठी और प्रताप सिर नीचा करके एक ओर खड़ा हो गया। कैसा गुणवान बालक था। आयु अभी आठ वर्ष से अधिक न थी, परन्तु लक्षण से भावी प्रतिभा झलक रही थी। दिव्य मुखमण्डल, पतले-पतले लाल-लाल अधर, तीव्र चितवन, काले-काले भ्रमर के समान बाल उस पर स्वच्छ कपड़े मुंशी जी ने कहा- यहां आओ, प्रताप।

प्रताप धीरे-धीरे कुछ हिचकिचाता-सकुचाता समीप आया। मुंशी जी ने पितृवत् प्रेम से उसे गोद में बैठा लिया और पूछा- तुम अभी कौन-सी किताब पढ़ रहे थे।

प्रताप बोलने ही को था कि विरजन बोल उठी- बाबा। अच्छी-अच्छी कहानियां थीं। क्यों बाबा। क्या पहले चिड़ियां भी हमारी भांति बोला करती थीं।

मुंशी जी मुस्कराकर बोले-हां। वे खूब बोलती थीं।

अभी उनके मुंह से पूरी बात भी न निकलने पायी थी कि प्रताप जिसका संकोच अब गायब हो चला था, बोला- नहीं विरजन तुम्हें भुलाते हैं ये कहानिया बनायी हुई हैं।

मुंशी जी इस निर्भीकतापूर्ण खण्डन पर खूब हंसे।

अब तो प्रताप तोते की भांति चहकने लगा-स्कूल इतना बड़ा है कि नगर भर के लोग उसमें बैठ जायें। दीवारें इतनी ऊंची हैं, जैसे ताड़। बलदेव प्रसाद ने जो गेंद में हिट लगायी, तो वह आकाश में चला गया। बड़े मास्टर साहब की मेज पर हरी-हरी बनात बिछी हुई है। उस पर फूलों से भरे गिलास रखे हैं। गंगाजी का पानी नीला है। ऐसे जोर से बहता है कि बीच में पहाड़ भी हो तो बह जाये। वहां एक साधु बाबा है। रेल दौड़ती है सन-सन। उसका इंजिन बोलता है झक-झक। इंजिन में भाप होती है, उसी के जोर से गाड़ी चलती है। गाड़ी के साथ पेड़ भी दौड़ते दिखायी देते हैं।

इस भांति कितनी ही बातें प्रताप ने अपनी भोली-भाली बोली में कहीं विरजन चित्र की भांति चुपचाप बैठी सुन रही थी। रेल पर वह भी दो-तीन बार सवार हुई थी। परन्तु उसे आज तक यह ज्ञात न था कि उसे किसने बनाया और वह क्यों कर चलती है। दो बार उसने गुरुजी से यह प्रश्न किया भी था परन्तु उन्होंने यही कह कर टाल दिया कि बच्चा, ईश्वर की महिमा कोई बड़ा भारी और बलवान घोड़ा है, जो इतनी गाडियों को सन-सन खींचे।

लिए जाता है। जब प्रताप चुप हुआ तो विरजन ने पिता के गले हाथ डालकर कहा-बाबा। हम भी प्रताप की किताब पढ़ेंगे।

मुंशी-बेटी, तुम तो संस्कृत पढ़ती हो, यह तो भाषा है।

विरजन-तो मैं भी भाषा ही पढूंगी। इसमें कैसी अच्छी-अच्छी कहानियां हैं। मेरी किताब में तो भी कहानी नहीं। क्यों बाबा, पढ़ना किसे कहते है ?

मुंशी जी बंगले झांकने लगे। उन्होंने आज तक आप ही कभी ध्यान नही दिया था कि पढ़ना क्या वस्तु है। अभी वे माथ ही खुजला रहे थे कि प्रताप बोल उठा- मुझे पढ़ते देखा, उसी को पढ़ना कहते हैं।

विरजन- क्या मैं नहीं पढ़ती? मेरे पढ़ने को पढ़ना नहीं कहतें?

विरजन सिद्वान्त कौमुदी पढ़ रही थी, प्रताप ने कहा-तुम तोते की भांति रटती हो।



चिट्ठाजगत पर सम्बन्धित: बजार, प्रेमचंद, मुंशी, पडोसी, प्रेम,

शिष्ट-जीवन के दृश्य

मुंशी प्रेमचंद

दिन जाते देर नहीं लगती। दो वर्ष व्यतीत हो गये। पण्डित मोटेराम नित्य प्रात: काल आत और सिद्वान्त-कोमुदी पढ़ाते, परन्त अब उनका आना केवल नियम पालने के हेतु ही था, क्योकि इस पुस्तक के पढ़न में अब विरजन का जी न लगता था। एक दिन मुंशी जी इंजीनियर के दफतर से आये। कमरे में बैठे थे। नौकर जूत का फीता खोल रहा था कि रधिया महर मुस्कराती हुई घर में से निकली और उनके हाथ में मुह छाप लगा हुआ लिफाफा रख, मुंह फेर हंसने लगी। सिरना पर लिखा हुआ था-श्रीमान बाबा साह की सेवा में प्राप्त हो।

मुंशी-अरे, तू किसका लिफाफा ले आयी ? यह मेर नहीं है।

महरी- सरकार ही का तो है, खोले तो आप।

मुंशी-किसने हुई बोली- आप खालेंगे तो पता चल जायेगा।

मुंशी जी ने विस्मित होकर लिफाफा खोला। उसमें से जो पञ-निकला उसमें यह लिखा हुआ था-

बाबा को विरजन क प्रमाण और पालागन पहुंचे। यहां आपकी कृपा से कुशल-मंगल है आपका कुशल श्री विश्वनाथजी से सदा मनाया करती हूं। मैंने प्रताप से भाषा सीख ली। वे स्कूल से आकर संध्या को मुझे नित्य पढ़ाते हैं। अब आप हमारे लिए अच्छी-अच्छी पुस्तकें लाइए, क्योंकि पढ़ना ही जी का सुख है और विद्या अमूल्य वस्तु है। वेद-पुराण में इसका महात्मय लिखा है। मनुषय को चाहिए कि विद्या-धन तन-मन से एकञ करे। विद्या से सब दुख हो जाते हैं। मैंने कल बैताल-पचीस की कहानी चाची को सुनायी थी। उन्होंने मुझे एक सुन्दर गुड़िया पुरस्कार में दी है। बहुत अच्छी है। मैं उसका विवाह करुंगी, तब आपसे रुपये लूंगी। मैं अब पण्डितजी से न पढूंगी। मां नहीं जानती कि मैं भाषा पढ़ती हूं।

आपकी प्यारी

विरजन

प्रशस्ति देखते ही मुंशी जी के अन्त: करण में गुदगुद होने लगी।फिर तो उन्होंने एक ही सांस में भारी चिट्रठी पढ़ डाली। मारे आनन्द के हंसते हुए नंगे-पांव भीतर दौड़े। प्रताप को गोद में उठा लिया और फिर दोनों बच्चों का हाथ पकड़े हुए सुशीला के पास गये। उसे चिट्रठी दिखाकर कहा-बूझो किसी चिट्ठी है?

सुशीला-लाओ, हाथ में दो, देखूं।

मुंशी जी-नहीं, वहीं से बैठी-बैठी बताओ जल्दी।

सुशीला-बूझ् जाऊं तो क्या दोगे?

मुंशी जी-पचास रुपये, दूध के धोये हुए।

सुशीला- पहिले रुपये निकालकर रख दो, नहीं तो मुकर जाओगे।

मुंशी जी- मुकरने वाले को कुछ कहता हूं, अभी रुपये लो। ऐसा कोई टुटपुँजिया समझ लिया है ?

यह कहकर दस रुपये का एक नोट जेसे निकालकर दिखाया।

सुशीला- कितने का नोट है?

मुंशीजी- पचास रुपये का, हाथ से लेकर देख लो।

सुशीला- ले लूंगी, कहे देती हूं।

मुंशीजी- हां-हां, ले लेना, पहले बता तो सही।

सुशीला- लल्लू का है लाइये नोट, अब मैं न मानूंगी। यह कहकर उठी और मुंशीजी का हाथ थाम लिया।

मुंशीजी- ऐसा क्या डकैती है? नोट छीने लेती हो।

सुशीला- वचन नहीं दिया था? अभी से विचलने लगे।

मुंशीजी- तुमने बूझा भी, सर्वथा भ्रम में पड़ गयीं।

सुशीला- चलो-चलो, बहाना करते हो, नोट हड़पन की इच्छा है। क्यों लल्लू, तुम्हारी ही चिट्ठी है न?

प्रताप नीची दृष्टि से मुंशीजी की ओर देखकर धीरे-से बोला-मैंने कहां लिखी?

मुंशीजी- लजाओ, लजाओ।

सुशीला- वह झूठ बोलता है। उसी की चिट्ठी है, तुम लोग गँठकर आये हो।

प्रताप-मेरी चिट्ठी नहीं है, सच। विरजन ने लिखी है।

सुशीला चकित होकर बोली- विजरन की? फिर उसने दौड़कर पति के हाथ से चिट्ठी छीन ली और भौंचक्की होकर उसे देखने लगी, परन्तु अब भी विश्वास आया।विरजन से पूछा- क्यें बेटी, यह तुम्हारी लिखी है?

विरजन ने सिर झुकाकर कहा-हां।

यह सुनते ही माता ने उसे कष्ठ से लगा लिया।

अब आज से विरजन की यह दशा हो गयी कि जब देखिए लेखनी लिए हुए पन्ने काले कर रही है। घर के धन्धों से तो उस पहले ही कुछ प्रयोज न था, लिखने का आना सोने में सोहागा हो गया। माता उसकी तल्लीनता देख-देखकर प्रमुदित होती पिता हर्ष से फूला न समाता, नित्य नवीन पुस्तकें लाता कि विरजन सयानी होगी, तो पढ़ेगी। यदि कभी वह अपने पांव धो लेती, या भोजन करके अपने ही हाथ धोने लगती तो माता महरियों पर बहुत कुद्र होती-आंखें फूट गयी है। चर्बी छा गई है। वह अपने हाथ से पानी उंड़ेल रही है और तुम खड़ी मुंह ताकती हो।

इसी प्रकार काल बीतता चला गया, विरजन का बारहवां वर्ष पूर्ण हुआ, परन्तु अभी तक उसे चावल उबालना तक न आता था। चूल्हे के सामने बैठन का कभी अवसर ही न आया। सुवामा ने एक दिन उसकी माता ने कहा- बहिन विरजन सयानी हुई, क्या कुछ गुन-ढंग सिखाओगी।

सुशीला-क्या कहूं, जी तो चाहता है कि लग्गा लगाऊं परन्तु कुछ सोचकर रुक जाती हूं।

सुवामा-क्या सोचकर रुक जाती हो ?

सुशीला-कुछ नहीं आलस आ जाता है।

सुवामा-तो यह काम मुझे सौंप दो। भोजन बनाना स्त्रियों के लिए सबसे आवश्यक बात है।

सुशीला-अभी चूल्हे के सामन उससे बैठा न जायेगा।

सुवामा-काम करने से ही आता है।

सुशीला-(झेंपते हुए) फूल-से गाल कुम्हला जायेंगे।

सुवामा- (हंसकर) बिना फूल के मुरझाये कहीं फल लगते हैं?

दूसरे दिन से विरजन भोजन बनाने लगी। पहले दस-पांच दिन उसे चूल्हे के सामने बैठने में बड़ा कष्ट हुआ। आग न जलती, फूंकने लगती तो नेञों से जल बहता। वे बूटी की भांति लाल हो जाते। चिनगारियों से कई रेशमी साड़ियां सत्यानाथ हो गयीं। हाथों में छाले पड़ गये। परन्तु क्रमश: सारे क्लेश दूर हो गये। सुवामा ऐसी सुशीला स्ञी थी कि कभी रुष्ट न होती, प्रतिदिन उसे पुचकारकर काम में लगाय रहती।

अभी विरजन को भोजन बनाते दो मास से अधिक न हुए होंगे कि एक दिन उसने प्रताप से कहा- लल्लू,मुझे भोजन बनाना आ गया।

प्रताप-सच।

विरजन-कल चाची ने मेर बनाया भोजन किया था। बहुत प्रसन्न।

प्रताप-तो भई, एक दिन मुझे भी नेवता दो।

विरजन ने प्रसन्न होकर कहा-अच्छा,कल।

दूसरे दिन नौ बजे विरजन ने प्रताप को भोजन करने के लिए बुलाया। उसने जाकर देखा तो चौका लगा हुआ है। नवीन मिट्टी की मीटी-मीठी सुगन्ध आ रही है। आसन स्वच्छता से बिछा हुआ है। एक थाली में चावल और चपातियाँ हैं। दाल और तरकारियॉँ अलग-अलग कटोरियों में रखी हुई हैं। लोटा और गिलास पानी से भरे हुए रखे हैं। यह स्वच्छता और ढंग देखकर प्रताप सीधा मुंशी संजीवनलाल के पास गया और उन्हें लाकर चौके के सामने खड़ा कर दिया। मुंशीजी खुशी से उछल पड़े। चट कपड़े उतार, हाथ-पैर धो प्रताप के साथ चौके में जा बैठे। बेचारी विरजन क्या जानती थी कि महाशय भी बिना बुलाये पाहुने हो जायेंगे। उसने केवल प्रताप के लिए भोजन बनाया था। वह उस दिन बहुत लजायी और दबी ऑंखों से माता की ओर देखने लगी। सुशीला ताड़ गयी। मुस्कराकर मुंशीजी से बोली-तुम्हारे लिए अलग भोजन बना है। लड़कों के बीच में क्या जाके कूद पड़े?

वृजरानी ने लजाते हुए दो थालियों में थोड़ा-थोड़ा भोजन परोसा।

मुंशीजी-विरजन ने चपातियाँ अच्छी बनायी हैं। नर्म, श्वेत और मीठी।

प्रताप-मैंने ऐसी चपातियॉँ कभी नहीं खायीं। सालन बहुत स्वादिष्ट है।

विरजन ! चाचा को शोरवेदार आलू दो,’ यह कहकर प्रताप हँने लगा। विरजन ने लजाकर सिर नीचे कर लिया। पतीली शुष्क हो रही थी।

सुशीली-(पति से) अब उठोगे भी, सारी रसोई चट कर गये, तो भी अड़े बैठे हो!

मुंशीजी-क्या तुम्हारी राल टपक रही है?

निदान दोनों रसोई की इतिश्री करके उठे। मुंशीजी ने उसी समय एक मोहर निकालकर विरजन को पुरस्कार में दी।

चिट्ठाजगत पर सम्बन्धित: बजार सम्बन्धित चिट्ठे">बजार,

Friday, June 15, 2007

कितना आगे कितना पीछे

Wednesday, June 13, 2007

अपनी बात

राहुल
पहले तो मैंने सोचा था कि हरी पाठक से उलझा रहू या फिर अयोध्या मे घूमू टहलूंदोस्तो के साथ मिलकर एक ऐसा बजार बनाऊ ,जहाँ हर कोई जा सकेचकाचक चांदनी चौक की तरहतीखी चाट , ठंडे गुपचुप ! सबकुछ
लज्जत दार ! कुल मिलाकर मैं इसमे इतना ज्यादा रम गया था खुद की ही तरह ब्लोग के होने और होने पर भी सोचने लगा थालेकिन प्रतिरोध नाम के नए ब्लोग पर बेंगानी बंधुओ की टिपण्णी पढ़कर मैं इतना ज्यादा आवेशित हो गया कि उस आवेश में मैंने कुछ अपशब्द इस्तेमाल कर दिएजाहिर है वो सब कुछ भावावेश मे ही थाबजार पर अवैध अतिक्रमण की वह विवादित पोस्ट , जिसकी भाषा से हिंदी चिठ्ठा जगत के कई चिट्ठाकार काफी दुःखी हो गए हैं और मेरे विचार से ऐसी भाषा से उनका दुःखी होना स्वाभाविक भी हैऐसे भाषा से कोई भी दुःखी हो जाएगालेकिन मेरी उस पोस्ट से मेरा किसी को व्यक्तिगत रुप से हर्ट करने का ना तो कोई कारण है और ना ही मेरी कोई मंशाइस लिए मुझे इसका हार्दिक खेद है और मैं उन शब्दों को वापस ले रहा हूँमेरा विनम्र निवेदन है कि मेरी उस पोस्ट मे कही बातों को प्रतीकात्मक रुप से देखा जाय ना कि किसी व्यक्ति विशेष के लिए जान कर । नारादमुनी का मैं परम भक्त हूँ और उनकी इच्छानुसार मैं वह पोस्ट भी हटा रहा हूँ... और एक बार फिर से , अगर किसी भी व्यक्ति विशेष को केरे इस कृत्य से दुःख पंहुचा है , खासकर बेंगाणी बंधुओं को , मैं एक बार फिर से अपना खेद प्रकट करता हूँ।
लेकिन उस लेख को लिखने के पीछे जो मूल बात थी , वह तो साम्प्रदायिकता के विरुद्ध थीउसे कैसे नज़र अंदाज़ किया जाय? अपने स्वाभाविक आक्रोश मे आकर मैं भावना मे बह गयाऔर उसके एक परिणाम स्वरूप मेरे ब्लोग को नारादमुनी ने अपने घर से निष्काषित करने का कदम उठाया , या उन्हें उठाना पड़ायह काफी दुखद हैनारद के बिना हमारा क्या होगा ? लेकिन नारद जी और जो लोग भी साम्प्रदायिकता विरोधी नही है , फिर वो चाहे जिस किसी के द्वारा की या कराई जा रही है , उनसे मेरे कुछ सवाल हैं जिनके उत्तर उस पोस्ट के तत्व को समझकर अपेक्षित थेसाम्प्रदायिकता की लडाई तो पूरे भारतीय समाज मे चल रही हैलोकतंत्र का सबसे बड़ा सवाल अभी तक उसी तरह से अपनी जगह पूरी मजबूती से खड़ा हुआ है तो क्यों ? इसका उत्तर है किसी के पास ? ये राजनीति नहीमुझमे अभी तक इतनी अकल नही कि मैं राजनीति को समझ पाऊं फिर भी नारद जी , क्या आपकी कार्यवाही किसी का पक्ष तो नही ले रही है ? असगर साहब की कहानिया विचलित कर देती हैअयोध्या का रहने वाला हूँ , इसलिये काफी कुछ देखा सहा है तो असगर साहब से एक दर्द का रिश्ता भी बनता है , ये रिश्ता लेखक और पाठक के बीच का सबसे पवित्र भावनात्मक रिश्ता होता है और उस रिश्ते पर कोई कीचड़ उछाले , तो मैं क्या कोई आम आदमी भी भावावेश मे बहकर कितनी गलियाँ देता है ये मैंने आज सुबह अपने पान वाले दोस्त ह्रदय से उसका मन लेने के लिए , कि देखते हैं आम आदमी जो भगवान से डरता है वो क्या कहता है ? ह्रदय ने वो पोस्ट पढी , शायद मेरी और उसकी भी भाषा वही थी जो कोई भी आदमी पान की दुकान पर खड़ा होकर करता है और रोज़ करता है , इसलिये उसने छूटते ही कहा कि मोदी .... को गोली मार देनी चाहिऐमेरा फिर से विनम्र निवेदन है कि इसे अन्यथा ना लिया जायमर्म यही है कि वो इस पोस्ट के पीछे छुपी बात को पहचान गयाइसलिये उसकी प्रतिक्रया उस जगह पर हुईना कि भाषा परये पूरी तरह से एक आम आदमी था , ज्यादा पढा लिखा तो नही लेकिन साम्प्रदायिकता क्या होती है और उसके परिणाम क्या है , ये उसे पता हैऔर मेरा भी मतलब पूरी एक विचारधारा के विरोध से ही था ना कि किसी व्यक्ति विशेष के लिएचलिये मान लेते हैं कि ह्रदय कुछ समता वादी हैं , लेकिन अगर इस बात पर गौर किया जाय कि अभी भी काफी सारी तादाद ऐसी है जो साम्प्रदायिकता की पक्षधर है , उसे कैसे नज़रअंदाज किया जाय ? ईमानदारी से मुझे एक बात बताइए कि क्या साम्प्रदायिकता का विरोध करना एक मानवीय धर्म नही ? और अगर इस सवाल को ऐसे ही छोड़ दिया जाय तो जो हमारी गंगा जमुनी तहजीब है , सैकड़ों हज़ारों साल से भारत मे एकसाथ मिलकर रहने की रवायत है , उसका क्या होगा ? सब जानते हैं की ये विचारधारा कहॉ कहॉ को तबाह और बरबाद करती हुई अपने हिंदुस्तान मे पंहुची और उसने किसे अपना वैचारिक पुत्र बनाया और अजीब तरह का वंशवाद कायम कियाऔर इस विचारक वंश ने पिछले तीन चार दशक से कितनी अशांति फैला रखी है , कितना कत्ले आम किया है? मैं ये बात भी स्वीकार करता हूँ की दंगो मे हिंदू भी मारे गए लेकिन इसका क्या जवाब है की सन १९३९-३५ से अब तक हुए दंगो मे हुई मौतों का डाटा देखता हूँ तो मुझे मुसलमान बिरादरी की संख्या मारे गए हिंदुओं से कम से कम चार गुना ज्यादा क्यों दिखाई देती है ? उस पोस्ट को लिखने की जो मेरी मूल भावना जो थी वह यही थी की इस तरीके के जो विद्वेष समाज मे चल रहे हैं , वो गलत है और मेरा उससे विरोध हैनारद जी , मैं आपका भक्त हूँ लेकिन ईमानदारी से कहू तो मुझे आपका ये कदम पता नही क्यों ओवर री एक्शन जैसा लगता हैक्या यह एक ऐसा मुद्दा था जिसको बातचीत द्वारा हल नही किया जा सकता था ? अगर मैं इस आशा से की मेरा भारत एक सोने का पंछी हो , जहाँ कोई ना लड़े , कोई किसी कौम का कत्लेआम ना करे , अमन हो , चैन हो , कुछ कड़े तरीके से विरोध दर्ज़ करता हूँ तो ये इतना बड़ा अपराध नही की इसपर पूरे एक ब्लोग को बैन कर दिया जायइस पर आपको लोकतांत्रिक तरीके विचार करना चाहिऐ और ब्लोग पर से बैन हटाकर एक खुशहाल भारत , मेरा भारत , आपका भारत और सबका भारत बनाने के लिए इस बहस मे खुद भी शामिल होना चाहिऐये जरूरी है नारद जी , इस सवाल को यूं ही खारिज कर देने से ये सवाल ख़त्म नही हो जाएगाये लगातार हमारे समाज को खोखला करता जा रहा हैइस पर बहस होनी चाहिऐभाषा को माध्यम ही रहने दीजिएनारादमुनी जी , मैं आपकी प्रतिष्ठा से भली भांति परिचित हूँ और आपके हिंदी ब्लोग्गिंग के क्षेत्र मे महान योगदान से अभिभूत भीये लोकतंत्र के सबसे गम्भीर सवाल हैं और इन पर बहस कराने से आपकी प्रतिष्ठा घटेगी नही बल्कि बढ़ेगी ही
(काम की अधिकता के कारण मैं कही भी किसी को जवाब नही दे पाया इसलिये इस काम मे देर हुई जिसका मुझे खेद है )

Sunday, June 03, 2007

क्या ब्लोग्गिंग भगोडापन है ??


पहले मैं यह स्पष्ट कर दूं कि मैं भी उन भगोड़ों की जमात मे शामिल हूँ जो विशुद्ध सामाजिक राजनितिक संघर्ष से किसी ना किसी बहाने से भाग आये हैं।

मुझे लगता है कि ब्लोग्गिंग या जो कुछ भी हल्ला ब्लॉग्स पर मच रह है उनकी सामाजिकता या सामाजिक दायित्व नही है। ब्लॉग कुछ एक खास लोगों के लिए हैं और हिंदी ब्लॉग मे ये भी नही कहा जा सकता कि अंग्रेजी अखबारों की तरह ये उन चंद लोगो तक पहुचते हैं जो इसी पढ़कर कुछ करेंगे। तो फिर सवाल उठता है कि ब्लोग्गिंग क्यों? ये सिर्फ एक स्वांत सुखाय कर्म है जिसके शायद ही कोई सामाजिक आयाम हो , फायदे हो। अभी मैं कोई पोस्ट पढ़ रह था , उसमे किसी ने कहा था कि जो लेखक नही हैं वो भी यहाँ आकर उलटी सीधी कलम चलाकर लेखक बन जाते हैं और गिने चुने लोगों से दाद भी पा जाते हैं । लेकिन जिसने भी इसे लिखा , मेरा सवाल उससे है कि लेखक होने का कोई सर्टिफिकेट होता है क्या जो आप जारी करेंगे ? फ़ालतू की बहस !
खैर मुझे ब्लॉग का कोई भी ऐसा फायदा जो सीधे समाज तक पन्हुचता हो , नज़र नही आता। हो सकता है कुछ लोगो को लगता है कि वो दुनिया बदल रहे हैं ब्लोग्गिंग से। और इसी जोश मे कई बार झगडे होते हैं और लोग बुरा भी मान जाते हैं। पिद्दी सी हिंदी ब्लॉग की दुनिया और उसमे भी इतने फसाद! ब्लोग्गिंग के कोई सामाजिक मायने हैं क्या ?

Sunday, April 29, 2007


कहॉ गया पंगेबाज ??

क्या उसे दिखाई नही देता कि अपने देश मे ऐसे ऐसे तालिबान मौजूद हैं ? क्या उसे दिखाई नही देता कि वह देश , जिसे बनाने के लिए हम रात को रात नही समझते दिन को दिन नही , बस पागलों की तरह दिन रात काम करते रहते हैं , उस देश में भी ऐसे लोग मौजूद हैं जो अपने ही लोगों को सरेआम मारते हैं , काटते हैं । औरतों की छातियां काट डालते हैं (संदर्भ :- फाइनल सोलुशन ) बच्चों और बूढों को उनके घर मे ही भूनकर मार डालते हैं... आज तक के हिंदू मुस्लिम दंगो के आंकडे गवाह हैं कि अगर एक हिंदू मारा गया तो पांच मुसलमान मारे गए। ऐसा क्यों ? हिंदू धर्म तो बड़ी दया का धरम है॥ कहॉ घुस जाती है सारी दया? क्या सारी दया बाबरी मस्जिद में ही घुसी रहती है ? लेकिन नही.... कतई दिखाई नही देगा। उ तो सिरिफ बिदेसन के मुसलमानो की फोटू छापने मे लगा रहता है ना। उसे कहॉ दिखाई देगा कि ई साले अपना ही देस बर्बाद करने मे लगे हुए हैं। अब इन सारी बातन मे उसको तो सिरिफ बिदेस ही दिखाई देता है। आंख के आगे भगवा पट्टी जो बंधी है। सारा टाइम तो बिदेसी फोटू जो सर्च किया करता है , अपने देस से उसे का मतलब। उ तो हमही ढक्कन हैं जो अपना देस अपना देस भजते रहते हैं ।

Saturday, April 28, 2007

हिंदुत्व के तालिबान











घर
उजाड़ते हैं












बच्चों
को मारते हैं






















बुजुर्गों
को भी नही छोड़ते

Monday, March 19, 2007

भाजपाई कुर्सी कवाब का मज़ा ही कुछ और है

आज हम आपको बताने जा रहे हैं कि इस बार का कुर्सी कवाब कैसे बनाया जाए ।

खाने वाले : सिर्फ़ एक
सामग्री : एक कप भीगी हुई सांप्रदायिकता , दो टेबल स्पून दलित चेतना , बारीक कटे हुए मुसलमान , दो तीन सालो से बोए गया हिंदुत्व का ज़हर , ताज़ा हुआ दंगा और ब्राःमन स्वाद के अनुसार
विधि
: सबसे पहले कढ़ाई मे बारीक कटे हुए मुसलमान डालिए , जब भुन कर लाल होने लगे तो उसमे थोड़ा सा हिंदुत्व बुराकिये । अब थोड़ी देर के लिए दोनो को एक ही जगह बंद कर के पकने दीजिए । थोड़ी के बाद जब अंदर से आवाज़ आनी बंद हो जाए तो उसमे थोड़ा दलित मसाला डाल दीजिए . ध्यान रखिए कि सारी चीज़े सही मात्रा मे पड़ें . अब आपको ज़रूरत है कि उसमे कुछ पानी डाले . पानी डालने के बाद उसे तब तक चलाइए जब तक कि मुसलमान , दलित और हिंदू ,तीनो आपकी मर्ज़ी के अनुसार तेल ना छोड़ दें . अब स्वाद के अनुसार ब्राःमन डालें . सूखने तक चलाएँ , सूख जाने पर चुनावी तवे पर उनकी टिकिया बनाकर धीमी आँच पे सेके . जब कुर्सी की महक आने लगे तो समझे कि कवाब तैयार है . अब आप इसका स्वाद चख सकते हैं .

Thursday, March 08, 2007

" अजी एक रोटी और ले लो ना प्लीज़ "

आज महिला सशक्तिकरण सप्ताह का दूसरा दिन है , और मेरे घर के बगल वाली औरत अपने पति से पिट रही है और उसके चीखने की आवाज़ आ रही है ...
अर्ररर...
माफ़ कीजिएगा लेकिन ये लाइनें पुरानी पड़ चुकी हैं और इतनी घिसी हैं की अब इन्हे फिर से पढ़ने का मन ही नही होता . लेकिन एक बात जो मेरी समझ मे नही आ रही है क़ि ये भी तो मानने का मन क्यूं नही होता की महिलाएँ आज दो नही दस क़दम आगे चल रही हैं . इंदिरा नुई और ऐश्वर्या रॉय , सोनिया गाँधी और वृंदा कारत , दिखाने वाले तो पूरी की पूरी लिस्ट दिखाते हैं की देखिए भाई साहब , कितनी आगे हैं हमारे देश की महिलाएँ . कोई मुक़ाबला है इनका ? नही मिलेगा . पूरी दुनिया मे कही नही मिलेगा . क्या कोई दूसरी सानिया मिर्ज़ा कहीं मिल सकती है ?
लेकिन ये सब तो सागर की कुछ बूँद मात्र हैं . इससे ज़्यादा कुछ नही . इलाहाबाद मे उसके साथ बलात्कार किया जाता है तो गुजरात मे उनकी छातियाँ काट डाली जाती है , कहीं पे ससुर उनके साथ ज़बरदस्ती शारीरिक संबंध बनता है तो कहीं पे बाप ख़ुद बेटी के साथ बलात्कार करता है .. और ये सब इसी साल की घटनाएँ हैं . (देखें यू पी और दिल्ली की हाल की कुछ घटनाएँ) .
लेकिन मेरी समझ मे अभी भी नहीं आ रहा है क़ि ये सब मैं अभी भी क्यों लिखे जा रहा हूँ ? हमे तो जब ग़ुस्सा लगेगी तो हम अपनी बीवियों पे उतारेंगे ही . अब भई खाना वग़ैरह तो हमसे बनता नही है फिर मैडम तो अभी ड्यूटी से आती ही होंगी , बनाएँगी , फिर परोसेँगी और .. " अजी एक रोटी और ले लो ना प्लीज़ " कहकर हमे खिलाएंगी ही . बेटी तो चलो हमने किसी तरह स्वीकार भी कर ली लेकिन ताने मारना तो फिर चाहे वो ग़ुस्से मे आकर ही क्यों ना मारेँ हमारे लिए ज़रूरी हो जाता है , आख़िर बीवी काबू मे कैसे रहेगी . मेरी अभी भी समझ मे नही आ रहा है क़ि मैं अभी तक ये सारी बकवास क्यों कर रहा हूँ ..
शायद ख़ाली दिमाग़ शैतान का घर होता है
और मेरे अंदर तरह तरह का शैतान जाग रहा है ..

Wednesday, March 07, 2007

अब मैं मरती हूँ ...

हमारे दफ़्तरों मे क्या क्या होता रहता है क्या क्या नही होता है ... हम सब इसकी कल्पना तो कर सकते हैं , इसके परिणामो के बारे मे बहस तो कर सकते हैं लेकिन शायद आज तक किसी ने इसके लिए कुछ किया होगा , मुझे इसकी आशा नही .. बाज़ार मे हमारे दफ़्तर भी आते हैं , वो भी कुछ बेचते हैं , कुछ ख़रीदते हैं , लेकिन आख़िर इन दफ़्तरों का असली रंग क्या है .. कुछ कुछ इस स्टोरी से साफ़ हो जाता है ..
प्रियंका ... मेरे दफ़्तर मे काम करने वाली एक लड़की . मैं अपना दफ़्तर छोड़ चुका हू लेकिन जो बात मुझे बार बार कॉन्फ़्यूज कर रही है कि मैं इसका परिचय किस काल मे दूं . दफ़्तर छोड़ चुका हूँ इसलिए सोचता हू की इसका परिचय भूत काल मे देना चाहिए . प्रियंका अभी ज़िंदा है , इसलिए सोचता हूँ कि वर्तमान काल मे इस से सबका परिचय होना चाहिये और अभी भी इसकी ज़िंदगी का कोई भरोसा नही इसलिए सोचता हू कि ये ताना बाना भविष्य मे ही बूना जाना चाहिये. बहर हाल चीज़ें अपने इतिहास पर ही टिकी होती हैं इसलिए बात उनके इतिहास से ही शुरू कि जाएँ तो अच्छा रहता है और उन्हे क्रम से समझने मे भी आसानी होती है . मैं नोयडा पिछले साल आया और नौकरी भी पिछले साल ही शुरू की . पहली नौकरी थी और कुछ कर गुज़रने की जोश भी . सो मैं जी जान से काम मे लग गया . मैं दफ़्तर के संपादन विभाग मे था और अक्सर मुझे काम के सिलसिले मे बॉस के केबिन तक जाना पड़ता था . बॉस के केबिन तक पहूचने के लिए मुझे रिसेपस्न और मार्केटिंग विभाग पार करके जाना होता था जो की छोटे और कबूतर के डर्बे की तरह बीच मे बने हुए थे . रास्ते से गुज़रते वक़्त गाहे - बगाहे सब पर नज़र पड़ ही जाती थी जिनमे प्रियंका भी शामिल थी .लेकिन तब उस से मेरी कोई बात-चीत नही होती थी. कारण यही था की मैं नया था और अभी दफ़्तर के लोगों से उतना घुल-मिल नही पाया था. एक दिन बॉस का हुक़म हुआ कि मैं प्रियंका को साथ लूँ और ग्रेटर नोयडा के एक अस्पताल का मुयायना कर आइए . उस अस्पताल पैर मुझे एक इँपेक्ट फ़ीचर करना था . हम दोनो ड्राइवर के साथ कार से तक़रीबन 20-25 किलोमीटर का फ़ासला तय करके उस अस्पताल तक पहुचे . रास्ते मे हुमरे बीच कोई बात-चीत नही हुई . इसका कारण शायद यह था कि मैं काफ़ी झिझक रहा था और वैसे भी वो वहा मार्केटिंग के काम से जा रही थी तो उससे मेरा उतना मतलब भी नही था . रास्ते भर मैं और ड्राइवर आपस मे बतीयाते रहे और ये लड़की कार कि पिछली सीट पैर खोए खोए अंदाज़ मे बैठी रही . बहर हाल हमारी बातचीत आधा काम निपटाने के बाद तब शुरू हुई जब हम दोनो डॉक्टर के केबिन के बाहर बैठे थे . लेकिन तब भी सिर्फ़ इतना ही कि इससे पहले कहा काम करते थे और क्या काम करते थे ?
मुझे ठीक ठीक याद नहीं की कब हममें दोस्तों जैसी बातें होने लगीं . जहाँ तक मैं समझता हूँ की पूरे दफ़्तर मे लोग वहाँ के अपराध संवाददाता से काफ़ी डरते थे और सिर्फ़ मैं और प्रियंका , दो ही ऐसे शख्स थे जिनकी झड़प उसके साथ होती थी और कोई भी उन्नीस रहने के लिए तय्यार नही होता था . शायद यह भी एक कारण रहा हो . मैं अख़बार की सामाजिक-राजनीतिक मेग़ज़ीन का काम करता था और लोग इसे मेरा सौभाग्य कहेंगे लेकिन मैं इसे अपना दुर्भाग्य मानता हूँ की उसमे छपने वाले लेखों को पसंद किया जाता था . मार्केटिंग मे तो ज़रूर ही. मुझे याद आता हैं , हम लोग उस समय 'आत्महत्या' पर काम कर रहे थे और हमारी बहस से रोज़ का अख़बार विचलित ना हो इसलिए बॉस ने हमे अपना केबिन दे दिया थ . वही केबिन , जिससे मार्केटिंग विभाग सटा हुआ था और बीच मे सिर्फ़ एक लकड़ी की दीवार भर थी. उस केबिन मे आत्महत्या पर रोज़ घंटों गरमागरम बहसें होती थी . एक दिन मैं और मेरे बाक़ी साथी तीनो बैठकर अपने विषयों पर क्या लिखा जाए , इसपर बहस कर रहे थे कि केबिन का दरवाज़ा खुला और इस लड़की ने अंदर क़दम रखा . कहने लगी कि उसे हम लोगो का काम अच्छा लगता है और उसका भी मन करता है कि वो भी कुछ लिखे . हम लोगो ने सोचा कि चलो अच्छा हुआ , काम कुछ हल्का हुआ . मुझे ठीक ठीक याद है कि मैने उसे 'किशोरों में बड़ती आत्महत्या' पर लिखने के लिए दिया था . तब उसने पूछा भी था की आत्महत्या करने का कोई आसान तरीक़ा बताओ . मैने कहा की थोड़ी देर मे सोच के बताउंगा . थोड़ी देर बाद जब मैं कुछ चुगने की फ़िराक मे पूड़ी वाली दुकान पर गया तो मुझे उस दुकान पर एक लंबी सी चमकती हुई लाल मिर्च दिखी , मैने कुछ सोचा और उस पुड़ी वाले से वो लाल मिर्च माँग ली . मैं वापस केबिन मे आया और एक काग़ज़ पर लिखा ' आत्महत्या करने का आसान उपाय' और लाल मिर्च उस काग़ज़ मे लपेटी और प्रियंका की टेबल पर ले जाकर रख दी . उसकी एक और साथिन उसके साथ बैठी थी . मुझे याद है की इस बात पर हम इतना हँसे थे इतना हँसे थे की हमारी आँखों मे पानी आ गया था.
ये वो दिन था जब दफ़्तर मे मुझे लेकर काफ़ी सारी भावनाएँ उत्पन्न हुईं . संपादकीय मे मुझे जलन से देखा गया तो मार्केटिंग मे ठीक ठाक़ सा लड़का . इसके बाद तो मेरी पूरे दफ़्तर से ही अच्छी दोस्ती हो गयी . हम लोग अक्सर आपस मे हँसी मज़ाक करते , आख़िर हमेशा काम तो नही ही हो सकता है ना . इसी मज़ाक मे अक्सर वह मुझसे पूछ लेती कि आत्महत्या करने का कोई आसान तरीक़ा मेरे दिमाग़ मे आया कि नही ? और मैं भी इसे मज़ाक समझ कर अक्सर हँस के टाल देता था . एक दिन हम यूँ ही बैठे थे और बस यूँ ही दुनिया जहान क़ी और एक दूसरे के बॉयफ़्रेंड और गर्लफ़्रेंड क़ी बातें कर रहे थे . प्रियंका ने मुझे बताया कि उसकी शादी हो चुकी है . मैं जानता था कि वो शादीशुदा नही है और उसका बॉयफ़्रेंड अक्सर उसे दफ़्तर से थोड़ी दूर पर छोड़ कर चला जाता था . दफ़्तर मे अक्सर लोग मज़ाक भी किया करते थे कि उसने तो करवा चौथ का व्रत भी रखा और चंद्र देव को जल भी चड़ाया . ख़ैर उसने कहा कि एक दिन वो उसको मुझसे मिलवाएगी . उसने मुझसे भी पूछा तो मैने भी उसे अपने बारे मे बताया . दरअसल अब तक हम दोनो अच्छे दोस्त बन चुके थे और जैसे ही टाइम मिलता दोनो काफ़ी सारी बातें एक दूसरे से शेयर करते . लेकिन एक चीज़ जो मुझे अक्सर ख़टकने लगी थी वो ये कि हमारी बात चाहे ज़हाँ से शुरू हो , ख़त्म पता नही कैसे आत्महत्या पर ही होती थी . ख़ैर उस टाइम हमारी बस इतनी ही बात हुई और हम काम मे लग गये . इस बीच मुझे पता चला कि उसे लेकर बॉस किसी होटल मे गये और वही सब किया जो आमतौर पर ऐसे दफ़्तरों मे बॉस लोग करना अपना हक़ समझते हैं बाद एक और ख़बर मिली कि ये सब उसके लिए अपनी नौकरी का ही एक हिस्सा बन गया . वह कमज़ोर होती जा रही थी , उसे अक्सर चक्कर भी आने लगे थे कमज़ोरी की वजह से . इसका ज़िक्र वो अक्सर मुझसे करती थी . लेकिन मैं हँस के टाल देता था . उसका काम भी ठीक से नही चल पा रहा था और इसलिए उसे बॉस की डाँट अक्सर ही सुनने के लिए मिल जाती थी .
उसके चहरे की उन्मुक्त हँसी अभी भी दिखाई दे जाती थी लेकिन पता नही मुझे ऐसा क्यूं लगता था कि ये हँसी सिर्फ़ उसके चेहरे क़ी ही है . उसकी आँखें धसति ही जा रही थी . चेहरे का नूर दिनो -दिन ख़तम होता जा रहा थ . एक दिन उसका एक्सीडेंट हुआ तो उसने मुझसे रिक़्वेस्ट क़ी कि मैं दफ़्तर में किसी को बताए बिना ये बहाना बना कर दू कि मैं उसे आटो मे बिठाने जा रहा हू जबकि मुझे उसे उसके बॉयफ़्रेंड के पास ले जाना था जो कि उसका इंतेज़ार रोड पे कर रहा था . ख़ैर मैं उसे उसके बॉयफ़्रेंड के पास छोड़ आया . उस दिन मैने उसके बॉयफ़्रेंड को देखा . अच्छा ख़ासा स्मार्ट लड़का था . मैने सोचा कि आख़िर क्या वजह है कि उस उमर के लड़के जो सपना देखते हैं उसके विपरीत उसने इस प्रियंका जैसी लड़की को , जो ऐसे लड़को के मानदंड पर कतई ख़री नही उतरती है , वह इस से प्रेम करने लगा . एह एक काफ़ी सोचने वाली बात थी ... ख़ैर इतना सब होने के बाद नोयडा मे बहुचर्चित निठरि मे मार्मिक हत्या कांड हो गया. अब काफ़ी दिनों तक मेरी बातचीत उससे नही हो पाई . आख़िरी बार मेरी उससे क़ायदे से एक ही बार बातचीत हो पाई . वह फिर से मुझसे आत्महत्या के बारे मे पूछ रही थी . बातों ही बातों मे उसने नटवर सिंह कि पुत्रवधू कि बात छेड़ी . वो शराब पीकर और उसके बाद नींद कि गोली ख़ाके मर गयी थी . इस घटना के बाद वो मुझसे अक्सर शराब की माँग करने लगी . लेकिन मैं हमेशा उससे बहाने बना देता था . अभी कुछ दिन पहले ही जब हम लोग एक समाचार टी वी मे एक्ज़ाम देने जा रहे थे , वो मेरे घर आई . उसने फिर से शराब की माँग शुरू कर दी . यहाँ तक की रसोई मे रखी ख़ाली शिषियों मे भी काफ़ी खोजबीन की लेकिन उसे मायूस लौटना पड़ा. हम लोग काफ़ी जल्दी मे थे इसलिए कोई ख़ास बात नही हो पाई . मैने उसे सोमवार को निकलने वाली मेगज़ींन का सारा समान दिया और उसे कहा की इसे गुप्ता को दे देना . लेकिन पता नही क्यों मुझे लग रहा था की कहीं कुछ गड़बड़ ज़रूर है . रास्ते मे भी उसने काई बार मुझे फ़ोन करके कहा की कब आ रहा हो वापस ? मैं उस समाचार चैनल मे अपना फ़ॉर्म जमा करके तक़रीबन 4 घंटे बाद वापस लौटा . वह अपने विभाग से मेरे पास आई ,मेरे सामने बैठ गयी . उसके बाद वो फिर से मुझसे शराब की माँग करने लगी . मैने जानने के लिए काफ़ी ज़ोर दिया तो उसने मुझे बताया की आत्महत्या करने के लिए उसे शराब चाहिए थी . लेकिन उसकी किसी भी बात पर मुझे विश्वास नहीं हो पा रहा था . ख़ैर मैने उसे किसी तरह चलता किया और अपना शक मैने सामने बैठे समाचार संपादक पर ज़ाहिर किया . मैने उससे कहा की ये बात बॉस को बताई जाए . लेकिन उस टाइम यही सोचा गया की थोडि देर और इंतेज़ार करके देखते हैं और इसे वाच करते हैं . वक़्त गुज़रा और मैने अपना काम निपटाया और अख़बार का पेज बनवाना शुरू कर दिया. उस दिन मेरे घर पर पार्टी थी इसलिए मुझे घर जाने की जल्दी भी थी . जल्दी जल्दी पेज बनवाने के बाद जब मैं निकलने लगा तो वह फिर से मेरे पास आई और शराब की ज़िद करने लगी . जब तक मैं उससे कोई और बात करता , मार्केटिंग की हेड ने मुझे बुला लिया और पूछने लगी की प्रॉपर्टी वाले पेज का क्या हुआ ? मैने उसे बताया की बन जाएगा और मैं आज अपनी नौकरी छोड़ रहा हू . मैने उसे ये भी बताया कि प्रियंका को आज अपने घर ले जाओ क्योकि मुझे लग रहा है की आज वो कुछ उल्टा सीधा करेगी लेकिन वो बोली की उससे कोई मतलब नही है , वो सिर्फ़ दफ़्तर मे ही उसे जानती है . इतना सुनने के बाद मुझे विश्वास हो गया की ये लड़की आज कुछ ना कुछ ज़रूर करेगी . मैने बाद मे उसे फ़ोन किया की कही वो कुछ ऐसा वैसा ना कर ले . उसने कभी हाँ तो कभी ना वाले जवाब दिए . रात मे उसने मुझे फिर से फ़ोन किया.
यह आधी रात का वक़्त रहा होगा और वह इतनी रात को मुझे कभी भी फ़ोन नही करती थी . मैने ये सारी बातें उसी समय बॉस को फ़ोन करके बताईं और यह भी बताया कि वह काफ़ी बहकी बहकी बातें कर रही है . बॉस ने उससे बात की , फिर मुझे वापस फ़ोन किया और कहा कि तुम व्हस्की पीकर बैठे हो तभी तुम्हे ये सारी बातें सूझ रही हैं . ख़ैर दूसरे दिन प्रियंका ने मुझे सवेरे फ़ोन करके बताया कि वह ठीक है . हालाँकि उसने रात मे भी बॉस के फ़ोन के बाद मुझे फ़ोन करके कहा भी था कि मैं ये सारी बातें बॉस को क्यो बताईं . लेकिन मैं अपनी ज़िम्मेदारी से नही बच सकता था . इतना सब हो जाने बाद मैं काफ़ी परेशान हो गया . उस दिन मेरा एक न्यूज़ चेनल मे मेरा इंटरव्यू भी था , सो मैं सबके साथ वहा चला गया . वहाँ हम लोग एक पार्क मे बैठ कर अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे थे कि तभी उसका फ़ोन आया . उसने मुझे बताया कि वह लक्ष्मी नगर मे है और शराब ख़रीदने जा रही है . मैं समझ गया कि अब ये लड़की कुछ कर के रहेगी . मैने उसे फ़ोन पर बहुत समझाया . इसी बीच उसने बॉस से अपने संबंध होने कि बात क़बूल की . तब तक हमारी बस इतनी ही बात हो पाई . लौटते हुए हम सारे ही लोग इतना ज़्यादा थक गाये थे कि सभी ने अपने अपने फ़ोन साईलेंट मोड़ पर डाले और खाना खाकर सो गये . दूसरे दिन जब मैं सवेरे सोकर उठा तो देखा कि तड़के 4 बजे उसकी 4 मिस काल पड़ी हुई थी . मैने सोचा कि अभी तो वो सो रही होगी इसलिए मैने तुरंत उसे फ़ोन नही किया . तक़रीबन 9 बजे के आसपास मैने उसे फ़ोन किया लेकिन मुझे कोई जवाब नही मिल पा रहा था . मेरा मन किसी अनहोनी की आशंका से कांप उठा . मैने कई बार उसका फ़ोन ट्राई किया लेकिन कोई रिसपोंस नही मिल रहा थ . काफ़ी डरते हुए मैने पता लगाने की कोशिश की तो ये पता चला कि वह हॉस्पिटल मे है . मैं समझ गया , वो जो कह रही थी , उसने कर दिखाया . फिर दूसरे दिन उसका फ़ोन हॉस्पिटल से आया और उसने मुझे बताया कि उसने तक़रीबन 35-40 नींद की गोलियाँ खा लीं थी. उसी के साथ मुझे पता चला कि उसने कई लोगों से उधार भी लिया था . एक बार उसने मुझे बताया भी था कि उसके उपर काफ़ी उधारी भी हो गयी थी . अब उसे इतने ज़्यादा पैसों की ज़रूरत क्यों पड़ती थी यह तो वही जाने लेकिन जो बात मैं जानता हूँ , उसका ख़ुद का ख़र्च 4-5 हज़ार से ज़्यादा नही था . ज़ाहिर है यह पैसे वह किसी को देती थी . शायद उसका बॉयफ़्रेंड .....गिद्ध उसके शरीर को ही नही बल्कि उसके मन को भी लगातार नोच रहे थे .. और ये ज़िल्लत वह बर्दाश्त नही कर पाई , मुझे भी उसके बच जाने का दुख हुआ ..काश वो मर ही गयी होती .. हालाँकि अब भी उसके फ़ोन आते हैं और मैं हर बार उससे वादा लेता हूँ कि अब वो दफ़्तर कभी नही जाएगी .. कम से कम बॉस से तो कभी नही मिलेगी ...एक बार उसने मुझे बड़ी ही मासूमियत से पूछा कि क्यो ना वो बॉस से मिले तो मैने कहा कि तू ख़ूब जानती है कि मैं ऐसा क्यों कह रहा हू...तब उसने हामी भरी कि...हाँ ...मैं जानती हूँ कि तू क्यों ऐसा कह रहा है ...और अंत में ...आजकल वह कुछ ख़ुश दिखाई देती है ..कहती है कि उसने ग़लत किया .. उसके घर वाले उसे बहुत प्यार करते हैं ..लेकिन मैं जानता हूँ और हर बार उससे बात करने वक़्त महसूस करता हूँ .. कि वो ...वो अब नही रही ..
समाप्त